Book Title: Sambodhi 2007 Vol 31
Author(s): J B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 75
________________ Vol. XXXI, 2007 संस्कृत छन्दःशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य का प्रदान 69 (३) हेमचन्द्राचार्य ने पाणिनि और पिङ्गल की सूत्रपरम्परा के अनुसार अधिकार और अनुवृत्ति का प्रयोग किया है। पूरे छन्दोऽनुशासन में नदी के प्रवाह की तरह धारावाहिक अनुवृत्ति है और कहीं भी मण्डूकप्लुति या सिंहावलोकित नहीं है । छन्द के गणविधान और यतिविधान दोनों की अनुवृत्ति देखी जाती है। सूत्र २.२२० से २.२२९ तक दश सूत्रों में यतिनिर्देशविषयक अनुवृत्ति सबसे लम्बी है। (४) यति के विद्यमान रहने से या उसके अभाव से एक ही गण विधान रहते हुए भी छन्द में जो परिवर्तन हो जाता है उसके बारे में हेमचन्द्राचार्य के विचार बहुत स्पष्ट हैं । इस विषय में कहीं भी संदिग्धता नहीं है । बारह अक्षरों से युक्त तयतय गणविधान पुष्पविचित्रा छन्द है, किन्तु यदि उसमें छ: अक्षरों के बाद यति है तो वह मणिमाला कहलाता है। त्यौ त्यौ पुष्पविचित्रा ॥ छन्दोऽनुशासनम्, २.२८९ सा मणिमाला चैः ॥ २.२९० यति के स्वीकार से छन्द परिवर्तन के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। जैसे प्रत्यवबोध-श्री:,१२ प्रमुदितवदना-प्रभा,१३ शरभललित-शरभा,१४ अवितथ-कोकिलक'५ इत्यादि । छन्दोऽनुशासन को संस्कृत छन्दःशास्त्र के 'सर्वसङ्ग्रहकोश' के रूप में प्रस्तुत करने में हेमचन्द्राचार्य का महनीय प्रदान है। उन्होंने समकालीन साहित्यिक और छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों में उपलब्ध सभी छन्दों का संनिवेश इस ग्रन्थ में किया है। जो छन्द बिलकुल अल्पप्रचलित या अप्रयुक्त थे, उन्हें भी यहाँ स्थान दिया गया है। नाट्यशास्त्र, वृत्तजातिसमुच्चय, स्वयम्भूच्छन्दस्, जानाश्रयी, रत्नमञ्जूषा, कविदर्पण, वृत्तरत्नाकर आदि ग्रन्थों में उपलब्ध सभी छन्द छन्दोऽनुशासन में एक ही जगह संगृहीत मिलते हैं। कई छन्द ऐसे हैं जो छन्दोऽनुशासन में पहली बार मिलते हैं। ये छन्द या तो आचार्य ने स्वयं दिये हैं या उन ग्रन्थों से संगृहीत किये हैं जो कालवशात् नष्ट हो गये हैं और आज प्राप्त नहीं होते हैं। ऐसे छन्दों की संख्या बहुत बड़ी है। विस्तारभय से केवल बारह से तेरह अक्षरों के छन्दों की सूचि प्रस्तुत है। अक्षरसंख्या गणविधान स्थान नररर २.१८८ जससय २.१९३ ममजजग छन्द-नाम (१) मेघावली (२) कोल: (३) श्रेयांमाला (४) क्ष्मा (५) लयः (६) अभ्रकम् (७) कोढुम्भः ननमरग २.२०१ २.२०३ २.२०८ २.२१५ नसजजग तभजजग मतसरग २.२१६

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