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Vol. XXXI, 2007
गुजरात के चौलुक्य - सोलंकी कालीन अभिलेखों में...
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उसकी नियुक्ति की थी (श्लोक १०९) । उसका मंत्री-जिसकी सत्कीति समग्र पृथ्वी पर फैल गयी हैउसका वर्णन कैसे किया जाय ? जिसमें गुफा या बखोल जैसा खोखला भाग नहीं है अपि तु बुलंद मजबूत प्राकार जिसने बनाया वह स्वर्गलोक में प्राकार बनाने की पद्धति अपनायी थी वैसे विश्वकर्मा जैसा जिसका स्थपति था । अंत में श्री वैद्यनाथ प्रभु से वीसलदेव को पराधीनता रहित और पुत्रों सहित कल्पायु देने की प्रार्थना कवि सोमेश्वरने जिसने अर्ध याम (प्रहर) में 'महाप्रबन्ध' की रचना की थी, जिसके चरणारविन्द की पूजा चौलुक्य राजाओं करते थे-उसने की है। उसके बाद प्रशस्ति उटुंकित करनेवाला शिल्पी-सलाट का उल्लेख आता है। अंत में गद्यमें संवत् १३११ ज्येष्ठ शुक्ल १५ बुध दिने अर्थात् सन् १२५३ के मे मास की तारीख १४ वी है उस समय अणहिलवाड में गुजरेश्वर वीरधवल के पुत्र वीसलदेव का राज्य था ।
यहाँ ११६ श्लोकों में से करीब ४९ श्लोकों में से श्री हीरानंद शास्त्रीने ९ प्रकार के छंद के प्रयोग दिखाये हैं । यह कवि की काव्य प्रौढि एवम् रसात्मकता और अलंकार प्रियता का भी द्योतक सिद्ध होता२७ है । अंतिम श्लोक में शीघ्र कवि के रूप में कविने अपना नामोल्लेख किया है।
इस कविने ग्रंथकार प्रशस्ति अपने (१) 'सुरथोत्सव' महाकाव्य के अंतिम सर्ग में (२) 'उल्लाघराघव' नाटक के अंत और प्रत्येक अंक के अंत में दी है। (३) वस्तुपाल प्रशस्ति लेखांक३ की लिखित प्रशस्ति दी हैं । इसकी ये प्रशस्तियाँ महत्त्व की ऐतिहासिक, राजकीय इत्यादि घटनायें सब से प्रथम और विश्वासपात्र वर्णन के साथ कविने इसलिये दी है उसका और अपने की० कौ० सुरथोत्सव-महाकाव्यों, नाटक, सुभाषित, शतक काव्य इत्यादि साहित्य स्वरूपों द्वारा सोमेश्वरने संस्कृत
और साहित्य के इतिहास एवं राजकीय, सांस्कृतिक , ऐतिहासिक इत्यादि विभिन्न दृष्टि से महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । इसकी कृतियों के बारे में कई विद्वानोने भी विस्तृत चर्चा करने में इस कवि की कृतियों का आधार लिया है। अतः समग्र भारतीय दृष्टि से गुजरात के तत्कालीन इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से भी इस कवि का नाम हमेशा याद रहेगा।
___ इन सब के फल स्वरूप सत्कृत्यों की परंपरा रचनेवाले धार्मिक-वीर राजपुरुषों अपने कर्मों-प्रार्थना, विद्वानों का सन्मान, उदार दान इत्यादि से अपने चरित्र से ही अमरकीर्ति के शाश्वत पात्र होते हैं उसी तरह उनके गुणों से प्रभावित होकर उनकी कीर्ति के गुणगान करते हैं वे भी उनके साथ अमर हो जाते हैं । जैसे राजा या दानेश्वर प्रभु का अंश माना जाता है, गुरु के भक्त भी उनके गुणगान गाते रहने से ईश्वररूप मानकर पूजे जाते हैं वैसा ही यहाँ हुआ है ।२८
सन्दर्भसूची : १. भो० जे० सांडेसरा (Ed.) सोमेश्वरदेव कृत 'उल्लाघराघव नाटक', प्रस्तावना, श्लोक-८, G.O.S., Baroda, 1961 २. विभूति वि० भट्ट, 'कीर्तिकौमुदी एक परिशीलन', (को० कौ० प०), अहमदाबाद, १९८६, पृ० ३६-३८
गि० व. आचार्य (संपा०) 'गुजरात ना ऐतिहासिक लेखो' (गु० ऐ० लो०) भा०२, १९३५, मुंबई, लेख नं० २६७, भा-३- १९४२, लेख नं० २०६, विभूति वि० भट्ट, 'सोमेश्वरनी कृतिओ नुं ऐतिहासिक अने सांस्कृतिक अध्ययन (सो