Book Title: Sambodhi 2007 Vol 31 Author(s): J B Shah Publisher: L D Indology AhmedabadPage 90
________________ 84 तनूजा सिंह SAMBODHI इतनी सुन्दर भले ही न हों परन्तु उनके पीछे छिपे भाव होते हैं, विश्वास होते हैं जो सामाजिक भावनाओं का विकास एवं परिष्कार है, परम्परागत रूप में जो विश्वास चले आ रहे हैं उनकी रक्षा होती है। इस प्रकार लोक चित्रकलाएँ हमारी जातिगत रक्षा का साधन भी हैं ये जीवन को सुन्दर एवं अलंकार पूर्ण बनाती हैं और मनुष्य के भावजगत एवं प्रकृति के शाश्वत सम्बन्ध को निरन्तर नवीन प्रेरणा देती हैं । लोक कला ने वर्तमान कलाओं को भी प्रभावित किया है। अनेक कलाकार लोक शैलियों से प्रेरणा लेकर अपनी कला शैली का विकास कर रहे हैं । अत: लोक कलाओं के सम्यक अध्ययन के द्वारा हम देश की कला परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । लोक कलाकार प्रकृति की अनुकृति ही नहीं करता वरन् नवीन रूपों की उद्भावना के द्वारा सौन्दर्य के विविध पक्षों का उद्घाटन करता है । इस प्रकार समस्त लोक कलाओं का स्थान संस्कृति में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हमारी लोक कलायें आज अपने गौरवशाली अतीत के कारण ही नहीं, अपनी वर्तमान लोकप्रियता एवं उपयोगिता के कारण भी उपादेय तथा महत्त्वपूर्ण हैं तथा राष्ट्रीय सुखसमृद्धि और सांस्कृतिक चेतना के जागरण में लोक कलाओं द्वारा सहायता हो सकती है। सन्दर्भसूची: १. वर्मा, अविनाश बहादुर-भारतीय चित्रकला का इतिहास, बरेली, १९८९ पृ० सं० १०-२० २. एनसाइक्लोपीडिया ऑफ वर्ल्ड, फोक आर्ट, पृ० सं० ४५२-५३ ३. बाहरी, हरदेव-प्राचीन भारतीय संस्कृति कोश वैदिक काल से १२वीं शताब्दी तक, नई दिल्ली, १९८८, पृ० सं० ३४५ ४. उपाध्याय, कृष्णदेव, 'भोजपुरी लोक गीतों में कला' सम्मेलन पत्रिका (कला अङ्क) (सम्पा० शास्त्री रामप्रताप त्रिपाठी, प्रयाग, १९७२) पृ० सं० २४१. ५. गैरोला वाचस्पति-'भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास, इलाहाबाद, १९८५ पृ० सं० १०३-१०८. ६. अग्रवाल, गिर्राज किशोर-कला समीक्षा अलीगढ़, १९७७, पृ० सं० १८८-१९५ ७. सम्पादक डॉ. जयसिंह नीरज, डॉ० बी० एल० शर्मा-राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा, जयपुर २००३, पृ० सं० ९४ ८. ब्रजमोहन सिंह परमार-नोह संस्कृति : तिथिक्रम, राजस्थान भारती, अंक १, १९६९ ९. एक स्थान जिसे ईटों या मिट्टी से ऊंचाई पर बना चबूतरा जिसमें देवता को प्रतिष्ठित करना । १०. सम्पादक, डॉ. जयसिंह नीरज एवं डॉ० बी०एल० शर्मा, राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा, जयपुर २००३, पृ० सं० ९४-९५ ११. यह राजस्थान का बहुप्रचलित लोक वाद्य है। जिसे नारियल पर खाल मढ़कर बाँस की डण्डी लगाकर खूटिया लगा दी जाती है। और नौ तार बाँध दिये जाते हैं। ये तार स्टील के न होकर, बालों के बने होते हैं तथा गज चलाकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है। गज को घोड़े की पूँछ के बालों से बनाया जाता है फिर घुघरू इत्यादि से अलंकृत करते हैं। १२. इस वाद्य की आकृति वीणा के समान ही होती है। 000Page Navigation
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