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समयसार
का विषयभूत वह भगवान आत्मा हमारे ज्ञान में नित्य प्रकाशित रहे - ऐसी भावना आगामी कलश में व्यक्त की गई है ।
(पृथ्वी)
अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहिर्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्।।१४।।
मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है।
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(रोला )
खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है ।
ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है ।।
अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल ।
जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो । । १४ । ।
जिसप्रकार नमक की डली खारेपन से लबालब भरी हुई है; उसीप्रकार आत्मा ज्ञानरस से लबालब भरा हुआ है। वह ज्ञेयों के आकाररूप में खण्डित नहीं होता; इसलिए अखण्डित है, अनाकुल है, अविनाशीरूप से अन्तर में दैदीप्यमान है, सहजरूप से सदा विलसित हो रहा है और चैतन्य के परिणमन से परिपूर्ण है; ऐसा उत्कृष्ट तेजोमय आत्मा हमें प्राप्त हो ।
उक्त कलश में ज्ञानानन्द से परिपूर्ण, अनाकुलस्वभावी, अखण्ड, अविनाशी आत्मा हमारी अनुभूति में सदा प्रकाशित रहे - यह भावना भाई गई है।
आत्मख्याति के अनुसार जो १५वीं व १६वीं गाथायें हैं, उनके बीच जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति एक गाथा पाई जाती है, जो आत्मख्याति में नहीं है । वह गाथा इसप्रकार है
में
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आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ।। ( हरिगीत )
निज ज्ञान में है आतमा दर्शन चरित में आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आतमा ।।
निश्चय से मेरे ज्ञान में आत्मा ही है। मेरे दर्शन में, चारित्र में और प्रत्याख्यान में भी आत्मा ही है । इसीप्रकार संवर और योग में भी आत्मा ही है ।
यह गाथा आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में ही बंधाधिकार में २९६ गाथा के रूप में भी उपलब्ध होती है।
उक्त दोनों गाथायें यद्यपि एक-सी ही हैं; तथापि जीवाधिकार में इसका अर्थ सामान्यरूप से