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समयसार
३६० ऐसी मान्यता अज्ञान है।
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यंति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकिर्षवस्ते
मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवंति ।।१६९।। जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५७।। जोण मरदिण य दुहिदो सो विय कम्मोदएण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि णहु मिच्छामारपटगा
( हरिगीत ) करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख। मानते हैं जो पुरुष अज्ञानमय इस बात को।। कर्तृत्व रस से लबालब हैं अहंकारी वे पुरुष ।
भव-भव भ्रमें मिथ्यामती अर आत्मघाती वे पुरुष ।।१६९।। इस अज्ञान के कारण जो पुरुष एक पुरुष के जीवन-मरण और सुख-दुःख को दूसरे पुरुष के द्वारा किये हुए मानते हैं, जानते हैं; पर कर्तृत्व के इच्छुक वे पुरुष अहंकार से भरे हुए हैं और आत्मघाती मिथ्यादृष्टि हैं।
इन कलशों में २४७ से २५६ तक दश गाथाओं और उनकी टीका में समागत भाव को अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया गया है।
इसप्रकार उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि प्रत्येक जीव स्वयं के जीवन-मरण और सुख दु:खों का जिम्मेवार स्वयं ही है; कोई अन्य नहीं। अत: अपने जीवन-मरण और सुख-दुःख का कर्ता-धर्ता अन्य को मानकर उनसे राग-द्वेष करना व्यर्थ है, अपना ही अहित करनेवाला है।
इसलिए सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों को चाहिए कि वे इसप्रकार की मिथ्यामान्यता छोड़कर आत्मघात के महान पाप से बचें और स्वयं को जानकर, पहिचान कर, स्वयं में ही जमकर, रमकर स्वयं के लिए अनंत सुख का मार्ग प्रशस्त करें।
जो बात उक्त कलश में कही गई है; उसी बात को अब गाथाओं में स्पष्ट कर रहे हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) जो मरे या जो दुःखी हों वे सब करम के उदय से। 'मैं दुःखी करता-मारता' - यह बात क्यों मिथ्या न ह । ? । । २ ५ ७ । ।