Book Title: Samaysar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 563
________________ ५४४ समयसार देखते, आत्मा का अनुभव नहीं करते। उक्त सम्पूर्ण मंथन का सार मात्र इतना ही है कि मुक्ति के मार्ग में द्रव्यलिंग अर्थात् नग्नदिगम्बर दशा एवं पंचमहाव्रतादि के शुभभाव होते तो अवश्य हैं; क्योंकि उनके बिना मुक्तिमार्ग नहीं बनता; फिर भी नग्नदिगम्बरदशा शरीर की क्रिया है और महाव्रतादि के शुभभाव रागभाव हैं; इसकारण वे मुक्ति के कारण नहीं हो सकते । शरीर की क्रिया तो परद्रव्य की क्रिया होने से न तो बंध की ही कारण है और न मोक्ष की ही कारण है; किन्तु शुभराग आत्मा की विकारी परिणति होने से बंध का ही कारण है, पुण्यबंध का ही कारण है; मुक्ति का कारण नहीं। अत: आत्मा के आश्रय से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाली निश्चयरत्नत्रयरूप निर्मलपरिणति ही एकमात्र मुक्ति का कारण है - ऐसा जानना-मानना ही योग्य है। शास्त्रों में भी सर्वत्र सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र को ही मुक्ति का कारण कहा गया है। अत: सर्वविकल्पों का शमन करके एकमात्र निज भगवान आत्मा का ही आश्रय करो, उसी की शरण में चले जाओ, उसे ही जानो, मानो और उसी में जम जाओ, रम जाओ; सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। __ जो बात विगत कलश में कही गई है; अब उसी बात को मूल गाथा में स्पष्ट करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के। उनमें करें ममता, न जानें वे समय के सार को ।।४१३।। पाषंडिलिंगेषु वा गृहिलिंगेषु वा बहुप्रकारेषु। कुर्वंति ये ममत्वं तैर्न ज्ञात: समयसारः ।।४१३।। ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिंगममकारेण मिथ्याहंकारं कुर्वंति तेऽनादिरूढव्यवहारमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढा: परमार्थसत्यं भगवंतं समयसारं न पश्यति । (वियोगिनी ) व्यवहारविमूढदृष्टय: परमार्थं कलयंति नो जनाः। तषबोधविमग्धबद्धयः कलयंतीह तषं न तंडलम ।।२४२।। जो व्यक्ति बहुत प्रकार के मुनिलिंगों या गृहस्थलिंगों में ममत्व करते हैं अर्थात् यह मानते हैं कि ये द्रव्यलिंग ही मोक्ष के कारण हैं; उन्होंने समयसार को नहीं जाना। उक्त गाथा का अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में अत्यन्त संक्षेप; किन्तु अत्यन्त सशक्त भाषा में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "मैं श्रमण हूँ या मैं श्रमणोपासक (श्रावक) हूँ - इसप्रकार द्रव्यलिंग में ही जो पुरुष ममत्वभाव से मिथ्या अहंकार करते हैं; अनादिरूढ़ व्यवहारविमूढ़, प्रौढ़विवेकवाले निश्चय पर अनारूढ़ वे पुरुष निश्चितरूप से परमार्थसत्य समयसार (शुद्धात्मा) को नहीं देखते हैं।" आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका में मुनिलिंग और गृहस्थलिंग का स्वरूप स्पष्ट करते

Loading...

Page Navigation
1 ... 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646