Book Title: Samaysar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 609
________________ समयसार ५९० ___ आसंसारसंहरणविस्तरणलक्षितकिंचिदूनचरमशरीरपरिमाणावस्थितलोकाकाशसम्मितात्मावयवत्वलक्षणा नियतप्रदेशत्वशक्तिः। सर्वशरीरैकस्वरूपात्मिका स्वधर्मव्यापकत्वशक्तिः । इसप्रकार निष्क्रियत्वशक्ति के उपरान्त अब नियतप्रदेशत्वशक्ति की चर्चा करते हैं - २४. नियतप्रदेशत्वशक्ति इस चौबीसवीं नियतप्रदेशत्वशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है - अनादिकाल से संसार-अवस्था में संकोच-विस्तार से लक्षित और सिद्ध-अवस्था में चरम शरीर से किंचित् न्यून परिमाण तथा लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के समान असंख्यात प्रदेशवाला आत्मा का अवयव है लक्षण जिसका, वह नियतप्रदेशत्वशक्ति है। तात्पर्य यह है कि असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं: उतने ही असंख्यात प्रदेश इस भगवान आत्मा में हैं। संसार-अवस्था में वे प्रदेश देहप्रमाण रहते हैं। जितनी देह हो, उतने ही आकार में आत्मा के प्रदेश समा जाते हैं। छोटी देह में संकुचित हो जाते हैं और बड़ी देह में फैल जाते हैं; पर रहते हैं देहप्रमाण ही तथा उनकी जो असंख्यात संख्या है, उसमें कोई कमी-वेशी नहीं होती। सिद्ध-अवस्था में देह छूट जाने पर अन्तिम देह के आकार में रहते हैं, पर अन्तिम देह से कुछ न्यून (कम) आकार में रहते हैं। आत्मा में जितने प्रदेश हैं, सदा उतने ही रहते हैं, कम-अधिक नहीं होते; विभिन्न आकारों में रहने पर भी वे सदा नियत ही हैं, जितने थे, उतने ही रहते हैं। आत्मा के असंख्यप्रदेशों का उक्त कथनानुसार आकार रहना ही नियतप्रदेशत्वशक्ति का कार्य है। नियतप्रदेशत्वशक्ति के विवेचन के उपरान्त अब स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति का विवेचन करते हैं २५. स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति इस पच्चीसवीं स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार दिया गया है - सभी शरीरों में एकरूप रहनेवाली स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति है। यह भगवान आत्मा अपने धर्मों में ही व्याप्त होता है, शरीरादि में नहीं; क्योंकि इसमें स्वधर्मव्यापकत्व नाम की एक शक्ति है। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इसके कारण यह आत्मा स्वधर्मों में ही व्यापक होता है। यद्यपि यह आत्मा अनादिकाल से अबतक अनंत शरीरों में रहा है; तथापि यह उनमें कभी भी व्याप्त नहीं हुआ; शरीररूप न होकर सदा ज्ञानानन्दस्वभावी ही रहा है। यह भगवान आत्मा इस स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति के कारण अपने अनंत गुणों में, धर्मों में, शक्तियों और निर्मलपर्यायों में तो व्यापता है; पर शरीरों और रागादि विकारी परिणामों में व्याप्त नहीं होता। रागादि होते हुए भी, शरीरों में रहता हुआ भी उसमें व्याप्त नहीं होता, स्वसीमा में ही रहता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646