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समयसार इसप्रकार इन सम्प्रदान और अपादान शक्तियों की चर्चा के उपरान्त अब अधिकरणशक्ति का निरूपण करते हैं - भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्तिः।
४६. अधिकरणशक्ति इस ४६वीं अधिकरणशक्ति की चर्चा आत्मख्याति में इसप्रकार की गई है - अधिकरणशक्ति आत्मा में भाव्यमानभाव के आधारपनेरूप है। इस अधिकरणशक्ति के कारण भगवान आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म का आधार है। निज भगवान आत्मा के आधार से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मलभावों की प्राप्ति होती है और ये भाव आत्मा के आधार से ही टिकते हैं।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति और वृद्धि मोक्षमार्ग है और इन्हीं की पूर्णता मोक्ष है। अधिकरणशक्ति के कारण मोक्ष और मोक्षमार्ग की पर्यायें बिना किसी परपदार्थ और बिना किसी शुभभाव के आधार से आत्मा के आश्रय से आत्मा में सहज ही प्रगट होती हैं। ___ तात्पर्य यह है कि अनंत सुख-शान्ति प्रदान करनेवाला रत्नत्रयधर्म न तो उपवासादि क्रियाकाण्ड से प्राप्त होता है और न उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शुभभाव से प्राप्त होता है; किन्तु अपने अनंत शक्तियों के संग्रहालय भगवान आत्मा के आश्रय से होता है; आत्मा के ज्ञान से होता है, श्रद्धान से होता है, ध्यान से होता है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यह भगवान आत्मा स्वयं के आधार पर प्रतिष्ठित है; इसे अन्य आकाशादि पदार्थों के आधार की आवश्यकता नहीं है। न केवल आत्मद्रव्य स्वयं के आधार पर है; अपितु उसका स्वाभाविक परिणमन, निर्मल परिणमन भी पूर्णत: स्वयं के आधार पर ही प्रतिष्ठित है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र संबंधी निर्मल परिणमन का भी एकमात्र आत्मा ही आधार है; क्योंकि उसमें अधिकरण नामक एक ऐसी शक्ति है कि जिसके कारण यह सब कुछ सहज ही होता है, स्वाधीनपने ही होता है।
प्रश्न : शास्त्रों में तो छहों द्रव्यों का आधार आकाश को कहा है और आत्मा भी एक द्रव्य है; अतः उसका आधार भी आकाश ही होना चाहिए?
उत्तर : आकाश को सभी द्रव्यों का आधार कथन निमित्त की अपेक्षा से किया गया कथन है; अत: असद्भूतव्यवहारनय का उपचरित कथन है। यहाँ निश्चयनय की अपेक्षा परमसत्य का प्रतिपादन है; उपादान की अपेक्षा प्रतिपादन है।
व्यवहार से भिन्न षट्कारक की भी चर्चा आती है; पर वह सभी कथन असद्भूत होता है, उपचरित होता है, असत्यार्थ होता है।
यहाँ अभिन्नषटकारक की चर्चा चल रही है। अत: परमसत्य यही है कि आत्मा अपनी