Book Title: Samaysar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 633
________________ समयसार ६१४ होते हैं और एक ओर से देखने पर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता है। इसप्रकार आत्मा की अद्भुत से अद्भुत स्वभाव महिमा जयवंत वर्तती है। (मालिनी) जयति सहजतेज:पुंजमज्जत्रिलोकीस्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः। स्वरस-विसर-पूर्णाच्छिन्न-तत्त्वोलंभः प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः ।।२७५।। अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्मन्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम् । उदितम-मृतचंद्र-ज्योति-रेतत्समंता ज्ज्व लतु विमलपूर्ण नि:सपत्नस्वभावम् ।।२७६।। इसप्रकार इन कलशों में आत्मा के अनेकान्त स्वभाव का दिग्दर्शन किया गया है। अनेक नयों से वह अनेकप्रकार का दिखाई देते हुए भी जब हम उसे नयातीत दृष्टि से देखते हैं या अनुभव करते हैं तो वह शुद्ध-बुद्ध-निरंजन-निराकार ही दिखाई देता है, सर्वज्ञस्वभावी होकर भी आत्मस्थ ही दिखाई देता है। चूँकि अब आत्मख्याति और उसका परिशिष्ट भी समापन की ओर है; इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार एकबार फिर स्याद्वाद की शुद्धि के लिए संक्षेप में आत्मवस्तु का अनेकान्तात्मक स्वरूप स्पष्ट कर रहे हैं। अब अन्त में आचार्यदेव आशीर्वादात्मक कलशों के माध्यम से आत्मज्योति के जयवंत वर्तने की मंगल कामना कर रहे हैं, कलशों का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (सोरठा ) झलकें तीनो लोक, सहज तेज के पुंज में। यद्यपि एक स्वरूप, तदपी भेद दिखाई दें।। सहज तत्त्व उपलब्धि, निजरस के विस्तार से। नियत ज्योति चैतन्य, चमत्कार जयवंत है।।२७५।। (दोहा ) मोह रहित निर्मल सदा, अप्रतिपक्षी एक। अचल चेतनारूप में, मग्न रहे स्वयमेव ।। परिपूरण आनन्दमय, अर अद्भुत उद्योत। सदा उदित चहुँ ओर से, अमृचन्द्रज्योति ॥२७६।। सहज तेजपुंज आत्मा में त्रिलोक के सभी पदार्थ मग्न हो जाते हैं; इसकारण अनेकाकार दिखाई देते हुए भी जो आत्मा एकरूप ही है तथा जिसमें निजरस के विस्तार से पूर्ण अछिन्न

Loading...

Page Navigation
1 ... 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646