Book Title: Samaysar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 577
________________ समयसार ५५८ भवंति चात्र श्लोकाः - (शार्दूलविक्रीडित) बाह्याथैः परिपीतमुज्झितनिजप्रव्यक्तिरिक्तीभवद् विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशो: सीदति । यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुनदूरोन्मग्नघनस्वभावभरत: पूर्णं समुन्मज्जति ।।२४८।। विश्वं ज्ञानमिति प्रतयं सकलं दृष्टवा स्वतत्त्वाशया भूत्वा विश्वमय: पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वंस्पृशेत् ।।२४९।। इसीप्रकार जब यह आत्मा आत्मा में झलकनेवाले ज्ञेयों में भी ये सब आत्मा ही हैं' – ऐसा मानकर आत्मा का नाश करता है तब पररूप से अतत्पना प्रकाशित करके, उनकी स्वयं में नास्ति बताकर, उन्हें अपने से भिन्न बताकर अनेकान्त ही उन्हें अपना नाश नहीं करने देता। ___ तात्पर्य यह है कि जाननेवाला ज्ञानतत्त्व आत्मा अलग है और उसमें झलकनेवाले ज्ञेयपदार्थ अलग हैं - यह बतानेवाला अनेकान्त ही है और यही ज्ञानियों का जीवन है। __ तत्पना और अतत्पना - इन दो बोलों से सम्बन्धित जो दो कलश आत्मख्याति में आये हैं; उनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) बाह्यार्थ ने ही पी लिया निजव्यक्तता से रिक्त जो। वह ज्ञान तो सम्पूर्णतः पररूप में विश्रान्त है। पर से विमुख हो स्वोन्मुख सद्ज्ञानियों का ज्ञान तो। 'स्वरूप से ही ज्ञान है' - इस मान्यता से पुष्ट है।।२४८।। इस ज्ञान में जो झलकता वह विश्व ही बस ज्ञान है। अबुध ऐसा मानकर स्वच्छन्द हो वर्तन करें। अर विश्व को जो जानकर भी विश्वमय होते नहीं। वे स्याद्वादी जगत में निजतत्त्व का अनुभव करें।।२४९।। जो बाह्य पदार्थों द्वारा सम्पूर्णत: पी लिया गया है। ऐसा अज्ञानी-पशु का ज्ञान अपनी व्यक्तिता (प्रकटता) को छोड़ देने से स्वयं में शून्य और पररूप में ही सम्पूर्णत: विश्रांत होता हुआ नाश को प्राप्त होता है; परन्तु 'जो तत् है, वह स्वरूप से ही तत् है' - ऐसी मान्यता के कारण स्याद्वादी का ज्ञान अत्यन्त प्रगट हुए ज्ञानघनस्वभाव के भार से सम्पूर्णत: उदित होता है। 'विश्व ज्ञान है अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थ ही आत्मा हैं' - ऐसा विचार कर समस्त विश्व को

Loading...

Page Navigation
1 ... 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646