Book Title: Samaysar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 578
________________ परिशिष्ट निजतत्त्व के रूप में देखकर विश्वमय होकर सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी पशु की भाँति स्वच्छन्द चेष्टा करता है और स्याद्वादी ज्ञानी तो यह मानता है कि जो स्वरूप से तत् है, वह पररूप से तत् नहीं है। इसलिए ज्ञानीजन तो विश्व से रचित होने पर भी विश्वरूप न होनेवाले विश्व से भिन्न निजतत्त्व का स्पर्श करते हैं। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि मात्र परज्ञेयों को जानने के कारण आत्मा को ज्ञानस्वरूप माननेवालों के ज्ञान को तो ज्ञेय ही पी गये हैं; क्योंकि उन्होंने पर को जाननेरूप ही अपना अस्तित्व स्वीकार किया है। यद्यपि आत्मा का स्वभाव पर को भी जानने का है; तथापि उसका अस्तित्व परज्ञेयों के कारण नहीं है; वह तो अपने ज्ञायकभाव से ही तत्स्वरूप है। अपने आत्मा के साथ-साथ परज्ञेयों का जानना भी आत्मा का स्वभाव ही है, उसमें परज्ञेयों का कुछ भी नहीं है। परज्ञेयों का ज्ञान भी परज्ञेयों के कारण नहीं होता; अपनी पर्यायगत योग्यता के कारण ही होता है। परपदार्थ तो उसमें मात्र ज्ञेयरूप निमित्त हैं। अधिक परपदार्थों को जाना तो मैं बड़ा हो गया और परपदार्थ थोड़े कम जानने में आये तो मैं छोटा हो गया - ऐसा माननेवालों ने अपना अस्तित्व पर से माना; अत: वे अज्ञानी हैं; क्योंकि आत्मा का अस्तित्व स्वयं के कारण है, पर के कारण नहीं। आत्मा का बड़प्पन तो स्वयं को जानने में है, पर को जानने में नहीं। पर से अपना अस्तित्व माननेवालों को यहाँ अज्ञानी कहा है, पशु कहा है। पर को जानने के कारण स्वयं को पररूप या विश्वरूप माननेवाले अपने स्वतंत्र अस्तित्व से इन्कार करनेवाले हैं और पर (समस्त विश्व) को जानने के कारण समस्त विश्व को निजरूप माननेवालों ने पर के स्वतंत्र अस्तित्व से इन्कार कर दिया है। अत: वे भी अज्ञानी हैं। उनको भी यहाँ पशु कहा गया है। इसप्रकार निज को पररूप और पर को निजरूप माननेवाले अज्ञानी हैं और निज को निजरूप और पर को पररूप माननेवाले ज्ञानी हैं। सबको जानना आत्मा की स्वतंत्र स्वरूपसम्पदा है और ज्ञान का ज्ञेय बनना समस्त पदार्थों की सहज स्वरूपसम्पदा है; इनमें परस्पर कोई पराधीनता नहीं है। इनमें परस्पर पराधीनता स्वीकार करना ही अज्ञान है और सबकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करना ही ज्ञान है। इसप्रकार यह सहज ही सिद्ध है कि आत्मा स्व की अपेक्षा तत्स्वरूप है और पर की अपेक्षा अतत्स्व रूप है। उक्त दोनों कलशों में क्रमश: यह कहा गया है कि स्व को पररूप जाननेवाले तथा पर को स्वरूप माननेवाले अज्ञानी हैं और स्व को स्वरूप और पर को पररूप माननेवाले स्याद्वादी ज्ञानी हैं।

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