Book Title: Samaysar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 594
________________ ५७५ परिशिष्ट आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा जीवत्वशक्तिः। प्रश्न : ‘एक शक्ति दूसरी शक्तिरूप नहीं है; फिर भी एक शक्ति का रूप दूसरी शक्तियों में है' - इसका भाव ख्याल में नहीं आया। इसे जरा विस्तार से स्पष्ट कीजिए। उत्तर : विस्तार से स्पष्टीकरण तो इन शक्तियों के विशेष अनुशीलन में यथास्थान होगा; किन्तु संक्षेप में आशय यह है कि यदि एक शक्ति दूसरी शक्तिरूप हो तो फिर दोनों एक ही हो जायेंगी, उनमें परस्पर प्रदेशभेद तो है ही नहीं, भावभेद भी नहीं रहेगा। __इसीप्रकार यदि एक शक्ति का रूप दूसरी शक्तियों में, उनकी निर्मल पर्यायों में तथा उनके आधारभूत द्रव्य में भी न मानें तो वस्तु का स्वरूप ही नहीं बनेगा। जीवत्वशक्ति का रूप यदि अन्य शक्तियों में न हो; उनकी निर्मल पर्यायों में न हो तथा उनके आधारभूत द्रव्य में भी न हो तो फिर शेष शक्तियाँ, उनकी निर्मल पर्यायें व आत्मद्रव्य अजीव हो जायेंगे। इसीप्रकार उनमें चितिशक्ति का रूप नहीं मानने पर आत्मद्रव्य की शक्तियाँ, उनकी निर्मल पर्यायें व उनका आधारभूत द्रव्य सभी जड़ हो जायेंगे; दृशि और ज्ञानशक्ति के रूप से इनकार करने पर सभी ज्ञान-दर्शन से रहित अचेतन हो जायेंगे । यहाँ तक कि प्रमेयत्वशक्ति के रूप को अस्वीकार करने पर सभी अप्रमेय हो जाने से जानने में ही नहीं आयेंगे। इसीप्रकार सभी शक्तियों के संदर्भ में घटित किया जा सकता है। आत्मा की अनंत शक्तियों में परस्पर प्रत्येक शक्ति का रूप अन्य शक्तियों में होने से सभी शक्तियाँ, उनकी निर्मल पर्यायें और उनका अभेद-अखण्ड पिण्ड भगवान आत्मा जीव है, चेतन है, ज्ञान-दर्शनमय है, प्रमेय है, त्यागोपादानशून्य है। इसप्रकार प्रत्येक शक्ति, उनकी निर्मल पर्यायें और उनका अभेद-अखण्ड आत्मा अनंत शक्तिसंपन्न है, अनंत शक्तियों का संग्रहालय है और अनंत गुणों का गोदाम है। अब प्रत्येक शक्ति का विवेचन प्रसंगप्राप्त है; जो इसप्रकार है - १. जीवत्वशक्ति अब आचार्य अमृतचन्द्र जीवत्वशक्ति के बारे में लिखते हैं, जिसका हिन्दी अनुवाद इसप्रकार हैआत्मद्रव्य के हेतुभूत चैतन्यभाव को धारण करना है लक्षण जिसका, वह जीवत्वशक्ति है। इस जीवत्वशक्ति के बीज समयसार की दूसरी गाथा में विद्यमान हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि जीव का लक्षण चेतना है। चेतना ही जीव के भावप्राण हैं और उसके कारण ही इस जीव नामक पदार्थ का जीवन है। पंचास्तिकाय में निश्चय से जीव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो जीता था, जीता है और जियेगा; वही जीव है। तात्पर्य यह है कि यह जीव अपने जीवन के लिए परपदार्थों पर निर्भर नहीं है। इसमें चैतन्यभाव को धारण करनेवाली जीवत्वशक्ति है, जीवनशक्ति है; इसके कारण ही यह सदा जीवित रहा है अर्थात् अबतक जीवित रहा है, अभी जीवित है और भविष्य में भी जीवित रहेगा।

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