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परिशिष्ट
५५३ ___ तत्स्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यंतश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात्, बहिरुन्मिषदनंतज्ञेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात्, सहक्रमप्रवृत्तानंतचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात्, अविभागैकद्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानंतचिदंशरूपपर्यायैरनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्तिस्वभावत्वेन सत्त्वात्, परद्रव्यक्षेत्रकालभावाभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेनाऽसत्त्वात्, अनादिनिधनाविभागैकवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात्, क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्, तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव ।
ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽपि आत्मवस्तुनः स्वयमेवानेकांत प्रकाशते, तर्हि किमर्थमर्हद्भिस्तत्साधनत्वेनाऽनुशास्यतेऽनेकांत: ?
तात्पर्य यह है कि ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ज्ञानरूप ही है, परज्ञेयरूप नहीं। इसप्रकार स्वरूप से तत्पना और परज्ञेयरूप से अतत्पना आत्मवस्तु में एकसाथ ही विद्यमान हैं।
इसीप्रकार एकसाथ रहनेवाले (गुण) और क्रमश: प्रवर्तमान (पर्याय) अनंत चैतन्य अंशों (गुण-पर्यायों) के समुदायरूप अविभागी द्रव्य की अपेक्षा आत्मा में एकत्व है और अविभागी एक द्रव्य में व्याप्त सहभूत प्रवर्तमान (गुण) और क्रमश: प्रवर्तमान (पर्याय) अनंत चैतन्य अंशरूप पर्यायों (अनंत गुण और अनंत पर्यायों) की अपेक्षा आत्मा में अनेकत्व है।
इसीप्रकार स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है; उस स्वभाव वाला होने से आत्मा सत्त्वस्वरूप है और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप न होने की शक्तिरूप जो स्वभाव; उस स्वभाववाला होने से आत्मा असत्त्वस्वरूप है।
इसीप्रकार अनादिनिधन अविभागी एक वृत्तिरूप परिणत होने से आत्मा नित्य है और क्रमश: प्रवर्तमान एक समय की मर्यादावाले अनेक वृत्ति अंशों रूप से परिणत होने के कारण आत्मा अनित्य है।
इसप्रकार ज्ञानमात्र आत्मवस्तु में तत्पना-अतत्पना, एकपना-अनेकपना, सत्त्वपनाअसत्त्वपना और नित्यपना-अनित्यपना आदि परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाली दो-दो शक्तियाँ (धर्म) स्वयमेव प्रकाशित होती हैं; इसलिए अनेकान्त भी स्वयेमव ही प्रकाशित होता है।
तत् और अतत्, एक और अनेक, सत् और असत् तथा नित्य और अनित्य - यद्यपि ये सभी धर्म परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं; पर वस्तुत: परस्पर विरोधी हैं नहीं; क्योंकि वस्तु में एकसाथ ही रहते हैं, सहज हैं, आत्मा के स्वभाव हैं, आत्मा में स्वाभाविकरूप से रहते हैं।
यद्यपि ये सभी धर्म एक ही वस्तु में एकसाथ ही रहते हैं; तथापि इनको जानने या कहने में अपेक्षा लगाना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि अपेक्षा लगाये बिना न तो इनको समझा ही जा सकता है और न कहा ही जा सकता है।
अब आगे आत्मख्याति टीका में आत्मा के सन्दर्भ में उक्त स्याद्वाद को ही शंका-समाधान द्वारा विस्तार से स्पष्ट करते हैं।
शंका : यदि ज्ञानमात्रता होने पर भी आत्मा के अनेकान्त स्वयमेव प्रकाशित होता है तो फिर अरहंत भगवान उसके साधन के रूप में अनेकान्त (स्याद्वाद) का उपदेश क्यों देते हैं?