________________
समयसार
४३२ परयोविभागज्ञानेन ज्ञायको भवति, स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति, स्वपरयोविभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति ॥३१४-३१५ ।।
(अनुष्टुभ् ) भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृत: कर्तृत्ववच्चितः।
अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ।।१९६।। है, स्व-पर के विभाग के दर्शन से दर्शक है और स्व-पर की विभाग परिणति से संयत है तथा तभी स्व-पर के एकत्व का अध्यास नहीं करने से अकर्ता है।"
उक्त कथन का आशय यह है कि मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम - इन तीनों का एकमात्र कारण स्व और पर में एकत्व का अध्यास है। स्व और पर में भेदविज्ञान न होने से ही यह आत्मा पर का कर्ता बनता है। सब कुछ मिलाकर इस आत्मा के बंधन का कारण भी स्व-पर के एकत्व का अध्यास ही है। ___ जब यह आत्मा भेदविज्ञान के बल से इस एकत्वबुद्धि को तोड़ देता है, पर का कर्तृत्व-भोक्तृत्व छोड़ देता है तो ज्ञानी हो जाता है, सम्यग्दृष्टि हो जाता है और कालान्तर में संयमी भी हो जाता है; अन्तत: कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।
अबतक जो बात कर्तृत्व के संबंध में कही गई, पर के कर्तृत्व छोड़ने के सन्दर्भ में कही गई; अब वही बात आगामी गाथाओं और कलश में भोक्तृत्व के संबंध में, भोक्तृत्व छोड़ने के संबंध में भी कहते हैं। आगामी गाथाओं की उत्थानिकारूप कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) जैसे कर्तृस्वभाव नहीं, वैसे भोक्तृस्वभाव।
भोक्तापन अज्ञान से, ज्ञान अभोक्ताभाव ।।१९६।। कर्तृत्व की भाँति भोक्तृत्व भी इस चैतन्य आत्मा का स्वभाव नहीं है। यह आत्मा अज्ञान के कारण ही भोक्ता बनता है, अज्ञान के अभाव में वह भोक्ता नहीं रहता।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस कलश में यही कहा गया है कि जिसप्रकार यह आत्मा पर का कर्ता नहीं है; उसीप्रकार उनका भोक्ता भी नहीं है।
यह कलश १९४वें कलश का प्रतिरूप ही है। उस कलश में कहा था कि जिसप्रकार यह आत्मा पर का भोक्ता नहीं है, उसीप्रकार कर्ता भी नहीं है और इसमें कहा है कि जिसप्रकार कर्ता नहीं है, उसीप्रकार भोक्ता भी नहीं है।
वह कलश पर के कर्तृत्व का निषेध करनेवाली गाथाओं की उत्थानिकारूप कलश था और यह कलश पर के भोक्तत्व का निषेध करनेवाली गाथाओं की उत्थानिकारूप कलश है।
महतह