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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४८३ में नहीं हैं। क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी जीव के गुणों का घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात और पुद्गलद्रव्य के घात होने पर जीव के गुणों का घात होना अनिवार्य हो जायेगा; किन्तु ऐसा होता नहीं है। इससे सिद्ध है कि जीव का कोई गुण पुद्गलद्रव्य में नहीं है।
प्रश्न - यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टि को विषयों में राग क्यों होता है ? उत्तर - किसी भी कारण से नहीं होता।
तर्हि रागस्य कतरा खानिः?
रागद्वेषमोहा हि जीवस्यैवाज्ञानमयाः परिणामाः, ततः परद्रव्यत्वाद्विषयेष न संति, अज्ञानाभावा-त्सम्यग्दृष्टौ तु न भवंति । एवं ते विषयेष्वसंत: सम्यग्दृष्टेर्न भवंतो न भवत्येव ।।३६६३७१।।
(मन्दाक्रान्ता) रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किंचित् । सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटं तौ
ज्ञानज्योतिर्व्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः ।।२१८।। प्रश्न - यदि ऐसा है तो फिर राग की खान कौन-सी है ? तात्पर्य यह है कि राग की उत्पत्ति कहाँ से होती है, राग की उत्पत्ति का स्थान कौन-सा है ?
उत्तर - राग-द्वेष-मोह जीव के ही अज्ञानमय परिणाम हैं; वे राग-द्वेष-मोह विषयों में नहीं हैं; क्योंकि विषय तो परद्रव्य हैं और वे सम्यग्दृष्टि के भी नहीं हैं; क्योंकि उसके अज्ञान का अभाव है। इसप्रकार वे राग-द्वेष-मोह परिणाम विषयों में न होने से और सम्यग्दृष्टि के भी न होने से हैं ही नहीं।"
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जिसप्रकार दीपक और दीपघट (जिसमें दीपक रखा हो - ऐसा घट) भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं; उसीप्रकार शरीर, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व पंचेन्द्रियों की उपभोग्य सामग्री आदि परपदार्थ और भगवान आत्मा भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं।
जिसप्रकार दीपघट के नष्ट होने पर भी दीपक नष्ट नहीं होता और दीपक के नष्ट होने पर दीपघट नष्ट नहीं होता; उसीप्रकार देहादि परद्रव्यों के नष्ट होने पर आत्मा के दर्शन-ज्ञान-चारित्र नष्ट नहीं होते और आत्मा के दर्शन-ज्ञान-चारित्र के नष्ट होने पर देहादि संयोग नष्ट नहीं होते। इसलिए इनकी भिन्नता सहज ही सिद्ध है।
परद्रव्यों की भिन्नता सिद्ध होने से यह भी सहज सिद्ध है कि मोह-राग-द्वेष के परिणाम पर के कारण नहीं होते, पर के द्वारा नहीं होते। दूसरी बात यह है कि आत्मा के स्वभाव न होने से आत्मा के आश्रय से भी उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अत: अन्तत: हम इसी निष्कर्ष पर पहँचते हैं कि इन मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति आत्मा के अज्ञान से आत्मा में ही होती है और इनका अभाव भी