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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
११२. मैं निर्माण नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
११३. मैं अगुरुलघु नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। __ ११४. मैं उपघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। __ ११५. मैं परघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
११६. मैं आतप नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
११७. मैं उद्योत नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
११८. मैं उच्छ्वास नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ___ नाहं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।११९। नाहमप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२०।
नाहं साधारणशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२१। नाहं प्रत्येकशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२२। नाहं स्थावरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२३। नाहं त्रसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२४। नाहं सुभगनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२५। नाहं दुर्भगनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२६। नाहं सुस्वरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२७। नाहं दुःस्वरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२८। नाहं शुभनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१२९। नाहमशुभनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३०।
११९. मैं प्रशस्तविहायोगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२०. मैं अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। ___ १२१. मैं साधारणशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२२. मैं प्रत्येकशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।