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मोक्षाधिकार वास्तविक कारण होने से धर्ममय ही है।
इस भोले जगत को तीसरे निश्चयप्रतिक्रमण की खबर ही नहीं है।
अतो हता: प्रमादिनो गताः सुखासीनतां प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालंबनमा आत्मन्येवालानितं च चित्तमा
संपूर्ण - विज्ञान - घनोप - लब्धेः ।।१८८।। अरे भाई ! यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि गलती करना, प्रायश्चित्त करना; फिर गलती करना और फिर प्रायश्चित्त करना - ऐसे गजस्नान से क्या लाभ है ? गलती करके भी प्रायश्चित्त नहीं करना तो महापाप है। ऐसा अप्रतिक्रमण तो सर्वथा हेय ही है; किन्तु बार-बार गलती करना और बार-बार प्रायश्चित्त करने से भी कोई लाभ नहीं है। यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि ऐसी गलती करना ही नहीं कि प्रायश्चित्त करना पड़े - यही सबसे बढ़िया बात है, जिसे यहाँ अप्रतिक्रमण या निश्चयप्रतिक्रमण कहा जा रहा है। शुद्धोपयोगरूपदशा ही ऐसी दशा है कि जिसमें पुण्य-पापरूपभाव का अभाव होने से कोई गलती होती ही नहीं है - यही परम उपादेय है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित ही है कि ज्ञानियों के ही शद्धोपयोगरूप निश्चयप्रतिक्रमण और शुभोपयोगरूप व्यवहारप्रतिक्रमण होता है। __अज्ञानियों के न तो सच्चा व्यवहारप्रतिक्रमण ही होता है और न शुद्धोपयोगरूप निश्चयप्रतिक्रमण ही।
जिस अप्रतिक्रमण को यहाँ अमृतकुंभ कहा है, वह शुद्धोपयोगरूप निश्चयप्रतिक्रमण ही है और जिस प्रतिक्रमण को विषकुंभ कहा है, वह शुभभावरूप है। शुभभावरूप प्रतिक्रमण को विषकुंभ कहने का कारण यह है कि वह आत्मा की प्राप्ति कराने में समर्थ नहीं है, पुण्यबंध का कारण है, बंध के अभाव का कारण नहीं है। ___ एक बात और भी ध्यान रखने योग्य है कि प्रतिक्रमण करनेरूप जिस शुभभाव को आचारशास्त्रों में अमृतकुंभ कहा है, वह प्रतिक्रमणरूप शुभभाव उन ज्ञानियों का ही है, जो शुद्धोपयोगरूप निश्चय प्रतिक्रमण को प्राप्त हो गये हैं। अब इसी भाव का पोषक कलशकाव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) अरे मुक्तिमार्ग में चापल्य अर परमाद को। है नहीं कोई जगह कोई और आलंबन नहीं।। बस इसलिए ही जबतलक आनन्दघन निज आतमा।
की प्राप्ति न हो तबतलक तुम नित्य ध्याओ आतमा॥१८८।। इस कथन से सुखासीन (सुख से बैठे हुए) प्रमादी जीवों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती - यह कहा गया है और चपलता का भी निषेध किया गया है। तात्पर्य यह है कि निश्चल प्रमादियों