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पूर्वरंग
"जिसप्रकार धनार्थीपुरुष पहले तो राजा को प्रयत्नपूर्वक जानता है, फिर उसका श्रद्धान करता है और फिर उसी का अनुचरण करता है, सेवा करता है, उसकी आज्ञा में रहता है, उसे हर
नचरति । तथात्मना मोक्षार्थिना प्रथममेवात्मा ज्ञातव्यः ततः स एव श्रद्धातव्यः ततः स एवानुचरितव्यश्च साध्यसिद्धेस्तथान्यथोपपत्त्यनुपपत्तिभ्याम् । ___ तत्र यदात्मनोनुभूयमानानेकभावसंकरेऽपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन संगच्छमानमेव तथेतिप्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावांतरविवेकेन निःशंकमवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपत्तिः।।
यदा त्वाबालगोपालमेव सकलकालमेव स्वयमेवानुभूयमानेऽपि भगवत्यनुभूत्यात्मन्यात्म न्यनादिबंधवशात् परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते तदभावादज्ञातखरशृङ्गश्रद्धानसमानत्वाच्छ्रद्धानमपिनोत्प्लवते तदा समस्तभावांतरविवेकेन नि:शंक मवस्थातुमशक्यत्वादात्मानुचरणमनुत्प्लवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेरन्यथानुपपत्तिः ॥१७-१८॥ तरह से प्रसन्न रखता है; उसीप्रकार मोक्षार्थीपुरुष को पहले तो आत्मा को जानना चाहिए, फिर उसी का श्रद्धान करना चाहिए; और फिर उसी का अनुचरण करना चाहिए, अनुभव के द्वारा उसी में लीन हो जाना चाहिए; क्योंकि साध्य की सिद्धि की उपपत्ति इसीप्रकार सम्भव है, अन्यप्रकार से नहीं। __अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं - जब आत्मा को, अनुभव में आने पर अनेक पर्यायरूप भेदभावों के साथ मिश्रितता होने पर भी सर्वप्रकार से भेदविज्ञान में प्रवीणता से 'जो यह अनुभूति है, सो ही मैं हूँ' - ऐसे आत्मज्ञान से प्राप्त होता हुआ इस आत्मा को जैसा जाना है, वैसा ही है - इसप्रकार की प्रतीति जिसका लक्षण है - ऐसा श्रद्धान उदित होता है; तब समस्त अन्यभावों का भेद होने से नि:शंक स्थिर होने में समर्थ होने से आत्मा का आचरण उदय होता हुआ आत्मा को साधता है। ऐसे साध्य आत्मा की सिद्धि की इसीप्रकार उपपत्ति है। __परन्तु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सबके अनुभव में सदा स्वयं ही आने पर भी अनादिबंध के वश परद्रव्यों के साथ एकत्व के निश्चय से मूढ़ - अज्ञानीजन को 'जो यह अनुभूति है, वही मैं हूँ - ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभाव से, अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता; समस्त अन्यभावों के भेद से आत्मा में नि:शंक स्थिर होने की असमर्थता के कारण आत्मा का आचरण उदित न होने से आत्मा को साध नहीं सकता। इसप्रकार साध्य आत्मा की सिद्धि की अन्यथा अनुपपत्ति है।" ___ ध्यान रहे, यहाँ ‘अनुभूति' शब्द का प्रयोग निर्मल पर्याय के अर्थ में न होकर त्रिकालीध्रुव के अर्थ में है।