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कर्ताकर्माधिकार
१६५ का कर्ता प्रतिभासित होता है।
किन्तु जब यह आत्मा ज्ञान के कारण उन राग-द्वेष एवं सुख-दुःखादि का और उनके अनुभव का परस्पर अन्तर जान लेता है, तब वे एक नहीं, अपितु भिन्न-भिन्न हैं' - ऐसे विवेक के कारण, भेदविज्ञान के कारण शीत-उष्ण की भाँति, जिनके रूप में आत्मा के द्वारा परिणमन अशक्य है - ऐसे राग-द्वेष एवं सुख-दुःखादिरूप से अज्ञानात्मा के द्वारा किंचित्मात्र भी ज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोऽहं जानाम्येव, रज्यते तु पुद्गल इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञानविरुद्धस्याकर्ता प्रतिभाति ।।९२-९३ ।। कथमज्ञानात्कर्म प्रभवतीति चेत् -
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोऽहं । कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ।।९४ ।। तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी। कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ।।९५।।
त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति क्रोधोऽहम् । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।।९४।। त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकम् ।
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।।९५।। परिणमित न होता हुआ, ज्ञान का ज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं ज्ञानरूप होता हुआ, 'यह मैं रागादि को जानता ही हूँ, राग तो पुद्गल करता है' - इत्यादि विधि से ज्ञान से समस्त रागादिकर्म का अकर्ता प्रतिभासित होता है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन में एक ही बात स्पष्ट की गई है कि जिसप्रकार पुद्गल की शीतोष्ण अवस्था, पुद्गल का परिणाम है, पुद्गल का ही कर्म है, कार्य है और पुद्गल ही उसका कर्ता है तथा उसे जाननेवाला ज्ञान आत्मा का कर्म है, कार्य है और आत्मा ही उस ज्ञानरूप कर्म का कर्ता है; ठीक उसीप्रकार राग-द्वेषादि भाव भी पुद्गल के परिणाम हैं, पुद्गल के कर्म हैं, कार्य हैं और पुद्गल ही उनका कर्ता है तथा उन्हें जाननेवाला ज्ञान आत्मा का कर्म है, कार्य है और आत्मा ही उस ज्ञानरूप कर्म का कर्ता है।
इसप्रकार का भेदज्ञान जबतक प्रगट नहीं होता, तबतक यह आत्मा अज्ञानी रहता है और उन्हें जाननेवाले ज्ञान के समान उन राग-द्वेषादि भावों का कर्ता कहा जाता है; किन्तु जब उपर्युक्त भेदज्ञान हो जाता है, तब वह ज्ञानी आत्मा स्वयं को राग-द्वेषादि भावों का कर्ता नहीं मानता है, अपितु उन्हें जाननेरूप भाव के रूप में ही परिणमित होता हुआ, उन रागादिभावों का अकर्ता ही रहता है।
इसप्रकार इन गाथाओं में मात्र यही कहा गया है कि रागादिभाव भी पुद्गल के परिणाम हैं और उनका कर्ता अज्ञानी आत्मा को तो कदाचित् कह भी सकते हैं; पर ज्ञानी आत्मा तो उनका कर्ता कदापि नहीं है, वह तो उनका ज्ञाता-दृष्टा ही है।
'अज्ञान से कर्म कैसे उत्पन्न होते हैं' - आगामी गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -