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कर्ताकर्माधिकार
घटादिकार्यों का कर्ता तो आत्मा निमित्तरूप से भी कदापि नहीं है ।"
इन गाथाओं में यह बताया गया है कि यद्यपि व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि आत्मा घटपटादि पदार्थों, इन्द्रियों, क्रोधादि द्रव्यकर्मों और शरीरादि नोकर्मों का कर्ता है; तथापि निश्चयनय व्यवहारनय का निषेध करता हुआ कहता है कि यदि आत्मा परद्रव्यों को करे तो वह परद्रव्यरूप हो जाये; क्योंकि निश्चय से जो जिसका कर्ता होता है, वह उससे तन्मय होता है ।
ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात् -
जे पोग्गलदव्वाणं परिणामा होंति णाणआवरणा ।
ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।। १०१ । ।
ये पुदगलद्रव्याणां परिणामा भवंति ज्ञानावरणानि ।
न करोति तान्यात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ।। १०१ । ।
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कर्तृत्व के अहंकार से ग्रस्त अनेक लोगों का ऐसा मानना है कि यह आत्मा परद्रव्यों का उपादान भले ही न हो, पर निमित्तकर्ता तो होता ही है।
उनकी इस मिथ्या मान्यता का खण्डन करते हुए आचार्यदेव यहाँ यह कह रहे हैं कि यदि आत्मा को परद्रव्यों की पर्यायों का निमित्तकर्ता माना जाये तो आत्मा के नित्य होने से उक्त कार्य को निरन्तर होते रहना चाहिए; परन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता । अतः यह सुनिश्चित ही है कि यह भगवान आत्मा पर-पदार्थों, इन्द्रियों, क्रोधादि द्रव्यकर्मों, शरीरादि नोकर्मों का उपादानकर्ता तो है ही नहीं, निमित्तकर्ता भी नहीं। हाँ, यह अवश्य है कि पर के करने के भावरूप परिणत आत्मा का उपयोग और आत्मप्रदेशों के हलन चलनरूप आत्मा का योग परद्रव्य की क्रिया में निमित्त होता है ।
यद्यपि आत्मा अपने इस उपयोग और योग का कर्ता है, तथापि उन योग और उपयोग के निमित्त से होनेवाले परपदार्थों के परिणमन का कर्ता वह कदापि नहीं है ।
ध्यान रहे, यहाँ परद्रव्य के परिणमन के कर्तृत्व का निषेध है, उनके करने के भावरूप अपने परिणमन के कर्तृत्व का नहीं ।
पर के कर्तृत्व के अभिमान से ग्रस्त और करने - धरने के विकल्पों में उलझे रहनेवाले जगत को उक्त परमसत्य को गहराई से समझने का प्रयास करना चाहिए। न केवल समझने का ही प्रयास करना चाहिए, अपितु तदनुसार जीवन को ढालने का भी प्रयास करना चाहिए; क्योंकि जीवन में सुख-शान्ति प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है।
१००वीं गाथा में यह कहा गया था कि भगवान आत्मा घट-पट - रथ आदि परपदार्थों, इन्द्रियों, क्रोधादि द्रव्यकर्मों और शरीरादि नोकर्मों का उपादानकर्ता तो है ही नहीं, निमित्तकर्ता भी नहीं है । उनके करने के भावरूप अपने उपयोग और योग का कर्ता कदाचित् अज्ञानी आत्मा को कह भी सकते हैं, किन्तु ज्ञानी आत्मा तो उनका भी कर्ता नहीं होता ।
अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि ज्ञानी आत्मा क्या करता है ? अतः इस १०१वीं गाथा में कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -