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निर्जराधिकार
३०५ तथा स्वभावरूप से उपलब्ध प्रत्यक्ष अनुभवगोचर इस ज्ञानभाव को जैसा का तैसा ग्रहण करो; क्योंकि यही तुम्हारा पद है।
इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, व्यभिचारिणो भावाः; ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः। यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः, नियतत्वावस्थः, एकः नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः।
ततः सर्वानेवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम्॥२०३॥
(अनुष्टुभ् ) एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्।
अपदान्येव भासन्ते पादान्यन्यानि यत्पुरः ।।१३९।। उक्त २०३वीं गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है -
“वास्तव में इस भगवान आत्मा में द्रव्य-भावभूत बहुत से भावों के मध्य में से जो भाव अतत्स्वभावरूप अर्थात् परभावरूप अनुभव में आते हुए अनियत अवस्थावाले अनेकरूप क्षणिक व्यभिचारी भाव हैं; वे सभी स्वयं अस्थाई होने के कारण स्थाता का स्थान अर्थात् रहनेवाले का स्थान नहीं ले सकने योग्य होने से अपदभूत हैं और जो भाव तत्स्वभावरूप से अर्थात् आत्मस्वभावरूप से अनुभव में आता हुआ नियत अवस्थावाला एकरूप नित्य अव्यभिचारी भाव है; वह एक ही स्वयं स्थाई होने के कारण स्थाता का स्थान अर्थात् रहनेवाले का स्थान हो सकने के योग्य होने से पदभूत है। ___ इसलिए समस्त अस्थाई भावों को छोड़कर परमार्थरसरूप से स्वाद में आनेवाला स्थाई भावरूप यह एक ज्ञान ही आस्वादन के योग्य है।" ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि जीवाजीवाधिकार में जो वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त २९ प्रकार के भाव बताये गये थे; वे सभी भाव आत्मा के लिए अपद हैं; अपनाने योग्य नहीं हैं, आत्मा नहीं हैं; क्योंकि वे आत्मस्वभाव न होने से अतत्स्वभाव हैं, अनियत हैं, असंख्यप्रकार के होने के कारण अनेक हैं, नाशवान होने से क्षणिक हैं और संयोगजनित होने से व्यभिचारी भाव हैं।
एकमात्र ज्ञानभाव ही आत्मा का स्वपद है, आत्मा है; क्योंकि वह आत्मा का स्वभाव होने से तत्स्वभाव है, नियत है, एक है, नित्य है और स्वभावभाव होने से अव्यभिचारी है। अब इसी अर्थ का पोषक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) अरे जिसके सामने हों सभी पद भासित अपद।
सब आपदाओं से रहित आराध्य है वह ज्ञानपद ।।१३९।। जिसके सामने सभी अन्य पद अपद भासित होते हैं, विपत्तियों का अपदभूत एवं एक