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पुण्यपापाधिकार
२४१ (अनुष्टुभ् ) वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा। एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ।।१०६।। वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । द्रव्यांतरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ।।१०७।। मोक्षहेतुतिरोधानाद्बन्धत्वात्स्वयमेव च । मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्तन्निषिध्यते ।।१०८।।
(दोहा ) ज्ञानभाव का परिणमन, ज्ञानभावमय होय । एकद्रव्यस्वभाव यह, हेतु मुक्ति का होय ।।१०६।। कर्मभाव का परिणमन, ज्ञानरूप ना होय। द्रव्यान्तरस्वभाव यह, इससे मुकति न होय ।।१०७।। बंधस्वरूपी कर्म यह, शिवमग रोकनहार ।
इसीलिए अध्यात्म में, है निषिद्ध शतबार ।।१०८।। ज्ञान एकद्रव्यस्वभावी (जीवस्वभावी) होने से ज्ञान के स्वभाव से ज्ञान का भवन (परिणमन) बनता है; इसलिए ज्ञान ही मोक्ष का कारण है।
कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी (पुद्गलस्वभावी) होने से कर्म के स्वभाव से ज्ञान का भवन (परिणमन) नहीं बनता है; इसलिए कर्म मोक्ष का कारण नहीं है।
कर्म मोक्ष के कारणों का तिरोधान करनेवाला है और वह स्वयं ही बंधस्वरूप है तथा मोक्ष के कारणों का तिरोधान करने के स्वभाववाला होने से उसका निषेध किया गया है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इन तीनों कलशों में यह कहा है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ज्ञान का परिणमन आत्मस्वभाव होने से मुक्ति का कारण है और शुभाशुभभावरूप कर्म परिणमन पुद्गलस्वभाव होने से मुक्ति का कारण नहीं है, मुक्ति का निरोधक है; अत: उन कर्मों का मुक्तिमार्ग में निषेध किया गया है।
अनेक आगम प्रमाणों और युक्तियों से यह बात भली-भाँति स्पष्ट हो गई कि ये शुभाशुभ सभी पुण्य-पापरूप परिणाम बंध के ही कारण हैं; फिर भी तीव्र मिथ्यात्व के कारण अज्ञानियों को यह बात जंचती नहीं, रुचती नहीं और पचती नहीं।
१०८वें कलश में यह कहा था कि मोक्ष के हेतुओं का तिरोधायी होने से मुक्ति के मार्ग में समस्त कर्मों का निषेध किया गया है। अब उसी बात को आगामी गाथाओं के माध्यम से सोदाहरण सिद्ध करते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -