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जीवाजीवाधिकार अलिंगग्रहण और चेतना गुणवाला जानो।
यः खलु पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरसगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरसगुणत्वात्, परमार्थत: पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्रव्येन्द्रियावष्टंभेनारसनात्, स्वभावत: क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलबेनारसनात् सकलसाधारणैकसवेदनपरिणामस्वभाव
यह गाथा भगवान आत्मा का पारमार्थिक स्वरूप बतानेवाली होने से समयसार की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गाथाओं में से एक है। यह गाथा न केवल समयसार में ही है; अपितु आचार्य कुन्दकुन्द कृत पाँचों ही परमागमों में पाई जाती है। प्रवचनसार में १७२वीं, नियमसार में ४६वीं, पंचास्तिकाय में १२७वीं एवं अष्टपाहुड़ के भावपाहुड़ में ६४वीं गाथा है और समयसार में यह ४९वीं गाथा है ही।
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी यह गाथा पाई जाती है। धवल के तीसरे भाग में भी यह गाथा है और पदमनन्दी पंचविंशतिका एवं द्रव्यसंग्रहादि में यह गाथा उद्धृत की गई है।
इसप्रकार आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन करनेवाली यह गाथा जिनागम की सर्वाधिक लोकप्रिय अत्यधिक महत्त्वपूर्ण गाथा है।
इस गाथा में अरस, अरूप आदि आठ विशेषणों के माध्यम से दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का स्वरूप समझाया गया है।
यह तो सर्वविदित ही है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार पर आत्मख्याति, प्रवचनसार पर तत्त्वप्रदीपिका एवं पंचास्तिकाय पर समयव्याख्या नामक टीकाएँ लिखी हैं। उन्होंने अपनी तीनों टीकाओं में इस गाथा का अलग-अलग प्रकार से अर्थ किया है, जो अपने-आप में अद्भुत है; मूलत: पठनीय है, गहराई से अध्ययन करने योग्य है, मननीय है।
आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र ने भगवान आत्मा के इन विशेषणों के एक-एक के अनेक-अनेक अर्थ किये हैं। अरस, अरूप, अगन्ध, अशब्द और अव्यक्त विशेषण के छह-छह अर्थ किये हैं तथा अनिर्दिष्टसंस्थान के चार अर्थ किये हैं।
आत्मख्याति में इस गाथा का जो भाव स्पष्ट किया गया है, वह इसप्रकार है - “(१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में रसगुण नहीं है; अत: जीव अरस है। (२) पुद्गलद्रव्य के गुणों से भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी रसगुण नहीं है; अत: जीव अरस है।
(३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से रस नहीं चखता; अत: अरस है।
(४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी रस नहीं चखता; अत: अरस है।
(५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का