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कर्ताकर्माधिकार अथ जीवाजीवावेव कर्तकर्मवेषेण प्रविशत: -
(मन्दाक्रान्ता) एकः कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यंतधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनि सि विश्वम् ।।४६।।
मंगलाचरण
(दोहा) मैं कर्ता हूँ कर्म का, कर्म है मेरा कर्म ।
ऐसी मिथ्या मान्यता, है मिथ्यात्व अधर्म ।। कर्ताकर्माधिकार आरंभ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में जो पहला वाक्य लिखते हैं, उसका भाव इसप्रकार है - "अब जीव और अजीव ही कर्ता-कर्म के वेष में प्रवेश करते हैं।"
कर्ताकर्माधिकार के इस आरंभ के वाक्य की संधि जीवाजीवाधिकार के उस अन्तिम वाक्य से बैठती है, जिसमें कहा गया है कि - "इसप्रकार जीव और अजीव पृथक् होकर रंगमंच से निकल गये।"
निष्कर्ष यह है कि जीवाजीवाधिकार में पर में एकत्व और ममत्व का निषेध किया गया है, एकत्वबुद्धि और ममत्वबुद्धि का निषेध किया गया है और इस कर्ताकर्माधिकार में कर्तृत्व और भोक्तृत्व का निषेध किया जा रहा है, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि का निषेध किया जा रहा है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस अधिकार की टीका लिखने के आरंभ में ही उस ज्ञानज्योति का स्मरण कर रहे हैं, जो इस कर्ता-कर्म संबंधी अज्ञान का अभाव करती हुई प्रगट होती है। मंगलाचरण के उक्त छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) मैं एक कर्ता आत्मा क्रोधादि मेरे कर्म सब। बस यही कर्ताकर्म की है प्रवृत्ति अज्ञानमय ।। शमन करती इसे प्रगटी सर्व विश्व विकाशिनी।
अतिधीर परमोदात्त पावन ज्ञानज्योति प्रकाशिनी।।४६ ।। 'इस लोक में एक चैतन्य आत्मा मैं तो एक कर्ता हूँ और क्रोधादि भाव मेरे कर्म हैं' - ऐसी अज्ञानियों की जो कर्ताकर्म की प्रवृत्ति है, उसे सब ओर से शमन करती हुई ज्ञानज्योति स्फुरायमान होती है। वह ज्ञानज्योति परम उदार है, अत्यन्त धीर है और पर के सहयोग बिना समस्त द्रव्यों को भिन्न-भिन्न बताने के स्वभाववाली होने से समस्त लोकालोक को साक्षात् जानती है।
इसप्रकार इस मंगलाचरण में समस्त पदार्थों को भिन्न-भिन्न प्रत्यक्ष जाननेवाली, अत्यन्तधीर और परमोदात्त केवलज्ञानज्योति को नमस्कार किया गया है; क्योंकि यह केवलज्ञानज्योति ही अज्ञानियों के कर्ताकर्मसंबंधी अज्ञान को नाश करने में समर्थ है।