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समयसार प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि फिर तो व्यवहारनय निश्चयनय का विरोधी ही हुआ, उसे अविरोधक कैसे कहा जा सकता है ?
तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं । जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ।।५९।। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ।।६०।।
पथि मुष्यमाणं दृष्ट्वा लोका भणंति व्यवहारिणः। मुष्यते एष पंथा न च पंथा मुष्यते कश्चित् ।।५८।। तथा जीवे कर्मणां नोकर्मणां च दृष्ट्वा वर्णम् । जीवस्यैष वर्णो जिनैर्व्यवहारतः उक्तः ।।५९।। गंधरसस्पर्शरूपाणि देहः संस्थानादयो ये च ।
सर्वे व्यवहारस्य च निश्चयद्रष्टारो व्यपदिशंति ।।६।। यथा पथि प्रस्थितं कंचित्सार्थं मुष्यमाणमवलोक्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण मुष्यत एष पंथा इति व्यवहारिणां व्यपदेशेऽपिन निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपिपंथा मुष्येत; तथा जीवे इसी प्रश्न का उत्तर आगामी तीन गाथाओं में दिया गया है, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें। पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें ।।५८।। उस ही तरह रंग देखकर जड़कर्म अर नोकर्म का। जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का ।।५९।। इस ही तरह रस गन्ध तन संस्थान आदिक जीव के।
व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को ।।६०।। जिसप्रकार मार्ग में जाते हुए व्यक्ति को लुटता हुआ देखकर व्यवहारीजन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है; किन्तु परमार्थ से विचार किया जाये तो कोई मार्ग तो लुटता नहीं है, अपितु मार्ग में चलता हुआ पथिक ही लुटता है।
इसीप्रकार जीव में कर्मों और नोकर्मों का वर्ण देखकर जिनेन्द्र भगवान व्यवहार से ऐसा कहते हैं कि यह वर्ण जीव का है।।
जिसप्रकार वर्ण के बारे में कहा गया है; उसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, देह, संस्थान आदि के बारे में भी समझना चाहिए कि ये सब भाव भी व्यवहार से ही जीव के हैं - ऐसा निश्चयनय के देखनेवाले या निश्चयनय के जानकार कहते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जिसप्रकार मार्ग में जाते हुए किसी संघ को लुटता देखकर, मार्ग में संघ की स्थिति होने से, उसका उपचार करके व्यवहारीजन यद्यपि ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है; तथापि