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समयसार ऐसा होने पर मोक्ष-अवस्था में भी पुद्गल ही जीव सिद्ध होगा; उससे भिन्न कोई जीव सिद्ध नहीं होगा; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य सदा ही अपने लक्षण से लक्षित अनादि-अनंत होता है।
तथा च सति, तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः।।६१-६४।। एवमेतत् स्थितं यद्वर्णादयो भावा न जीव इति -
एक्कंच दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इन्दिया जीवा। बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।।५।। एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं। पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ॥६६।।
एकं वा द्वे त्रीणि च चत्वारि च पंचेन्द्रियाणि जीवाः । बादरपर्याप्तेतरा: प्रकृतयो नामकर्मणः ।।६५।। एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः।
प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यतेजीवः ।।६६।। निश्चयत: कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन
ऐसा होने पर संसार-अवस्था में वर्णादि का जीव के साथ तादात्म्य माननेवालों के मत में भी पुद्गल से भिन्न कोई जीव न रहने से अवश्य ही जीव का अभाव सिद्ध होता है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन से यही स्पष्ट होता है कि जीव का वर्णादि २९ प्रकार के भावों के साथ न मोक्ष-अवस्था में तादात्म्यसंबंध है और न संसार-अवस्था में। अत: ये सभी पुद्गलरूप भाव निश्चय से जीव से भिन्न ही हैं। ___ 'ये २९ प्रकार के भाव जीव नहीं हैं' - यह सिद्ध करने के उपरान्त अब आचार्यदेव इस विषय के उपसंहार की ओर बढ़ते हुए कहते हैं -
(हरिगीत) एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सक्ष्म-बादर आदि सब ।।५।। इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो।
कैसे कहें - ‘वेजीव हैं' - जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी ।।६६।। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त - ये नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं। इन पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों के कारणरूप होकर रचित जीवस्थानों को जीव कैसे कहा जा सकता है ?
आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को सोदाहरण इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -