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समयसार
शरीर और आत्मा के व्यवहारनय से एकत्व है, किन्तु निश्चयनय से नहीं; इसलिए शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन व्यवहार से ही कहलाता है, निश्चयनय से नहीं। निश्चयनय से तो चेतन के स्तवन से ही चेतन का स्तवन होता है और वह चेतन का निश्चय स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह और क्षीणमोह रूप से जैसा कहा है, वैसा ही होता है ।
जब तत्त्व से परिचित मुनिराजों ने आत्मा और शरीर के एकत्व को इसप्रकार नयविभाग की युक्ति द्वारा जड़मूल से उखाड़ फेंका है; तब विजरस के वेग से आकृष्ट हुए प्रस्फुटित किस पुरुष को वह ज्ञान तत्काल ही यथार्थपने को प्राप्त न होगा ?
इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरास:
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एवमयमनादिमोहसंताननिरूपितात्मशरीरैकत्वसंस्कारतयात्यंतमप्रतिबुद्धोऽपि प्रसभोज्जृम्भिततत्त्वज्ञानज्योतिर्नेत्रविकारीव प्रकटोद्घाटितपटलष्टसितिप्रतिबुद्धः ? साक्षात् द्रष्टारं स्वं स्वयमेव हि विज्ञाय श्रद्धाय च तं चैवानुचरितुकामः स्वात्मारामस्यास्यान्यद्रव्याणां प्रत्याख्यानं किं स्यादिति पृच्छन्नित्थं वाच्यः -
इसप्रकार अज्ञानी ने तीर्थंकरों के व्यवहार स्तवन के आधार पर जो प्रश्न खड़ा किया था; उसका नयविभाग से इसप्रकार उत्तर दिया है, जिसके बल से यह सिद्ध हुआ कि आत्मा और शरीर में निश्चय से एकत्व नहीं है ।
इसप्रकार प्रथम कलश में सम्पूर्ण प्रकरण के निष्कर्ष को अत्यन्त सीधी और सपाट भाषा में प्रस्तुत कर दिया गया है कि निश्चय से आत्मा और शरीर किसी भी रूप में एक नहीं हैं; भिन्न-भिन्न ही हैं।
दूसरे कलश के माध्यम से आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि जब सर्वज्ञदेव ने, तत्त्वमर्मज्ञ आचार्यों ने, ज्ञानी धर्मात्माजनों ने नयविभाग के द्वारा शरीर और आत्मा के एकत्व को जड़मूल से ही उखाड़ फैंका है, पूरी तरह निरस्त कर दिया है तो फिर ऐसा कौन व्यक्ति है कि जिसकी समझ में यह बात नहीं आये कि देह भिन्न है और आत्मा भिन्न है ।
तात्पर्य यह है कि जिसे निजरस का रस है, जो निजरस के वेग से आकृष्ट है, प्रस्फुटित है, स्फुरायमान है, उत्साहित है; उसे तो यह बात अवश्य ही समझ में आ जायेगी।
यह कहकर आचार्यदेव इस प्रकरण को यहीं समाप्त करना चाहते हैं; क्योंकि इस कलश के बाद ही आचार्य अमृतचन्द्र तत्काल लिखते हैं कि 'इसप्रकार अप्रतिबुद्ध ने २६वीं गाथा में जो युक्ति रखी थी, उसका निराकरण कर दिया गया है।'
इसप्रकार हम देखते हैं कि २६वीं गाथा से आरम्भ और ३३वीं गाथा पर समाप्त इस प्रकरण में निश्चय स्तुति और व्यवहार स्तुति का स्वरूप तो स्पष्ट हुआ ही है; साथ में आत्मा और शरीर की अभिन्नता और भिन्नता का स्वरूप भी भली-भाँति स्पष्ट गया है 1
आत्मख्याति टीका में ३४वीं गाथा की जितनी लम्बी उत्थानिका लिखी गई है, उतनी लम्बी उत्थानिका शायद ही किसी अन्य गाथा की लिखी गई होगी। उत्थानिका का भाव इसप्रकार है
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