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पूर्वरंग
धर्मादिद्रव्यरूप परपदार्थ मेरे नहीं हैं; क्योंकि ये मेरे स्वभाव से भिन्न हैं। मैं टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभावी हूँ, स्वयं के लिए अन्तरंगतत्त्व हूँ और ये मुझसे भिन्न बहिरंगतत्त्व हैं।
आचार्यदेव कहते हैं कि भले ही ये ज्ञान में तदाकार होकर डूब रहे हों, अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हों, तथापि ये मेरे नहीं हैं।
दूसरी बात यह है कि यद्यपि स्व और पर दोनों एकसमय ही ज्ञान में ज्ञात हो रहे हैं; तथापि दोनों का स्वाद भिन्न-भिन्न है। भिन्न-भिन्न स्वाद के कारण मैं धर्मादि अजीवद्रव्यों एवं मेरे से भिन्न जीवद्रव्यों के प्रति पूर्णतः निर्मम हूँ; क्योंकि मैं एकत्व को प्राप्त होने से सदा ही ज्यों का त्यों स्थिर रहता हूँ। अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता ।
( मालिनी )
इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम् । प्रकटित- परमार्थे - दर्शन - ज्ञानवृत्तै: कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्त: ।। ३१ ।।
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पर में से अपनापन टूटना, एकत्व टूटना और अपने में अपनापन आना, एकत्व आना ही ज्ञेयभाव से भेदविज्ञान होना है।
परपदार्थ के पास जाये बिना और परपदार्थ भी पास में आये बिना ही ज्ञान का स्वभाव पर को जानने का है। पर इस पर को जानने का पर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि पर को जानना भी तो आत्मा का स्वयं का ही स्वभाव है ।
अब ३६वीं एवं ३७वीं गाथा की विषयवस्तु को समेटते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कलशरूप काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( हरिगीत )
बस इसतरह सब अन्यभावों से हुई जब भिन्नता । तब स्वयं को उपयोग ने स्वयमेव ही धारण किया ।। प्रकटित हुआ परमार्थ अर दृग ज्ञान वृत परिणत हुआ । तब आतमा के बाग में आतम रमण करने लगा ।। ३१ ।।
इसप्रकार भावकभाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होने पर जब सर्व अन्य भावों से भिन्नता भासित हुई, विवेक जागृत हुआ; तब यह उपयोग स्वयं ही एक अपने आत्मा को ही धारण करता हुआ, दर्शन - ज्ञान-चारित्ररूप से परिणत होता हुआ, परमार्थ को प्रकट करता हुआ अपने आत्माराम में ही प्रवृत्ति करता है, आत्मारूपी बाग में ही रमण करता है, अन्यत्र नहीं भटकता ।
यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव यह कहना चाहते हैं कि जब भावकभावों और ज्ञेयपदार्थों से आत्मा की भिन्नता भली-भाँति भासित हो गई; तब उपयोग को अन्यत्र भटकने का अवकाश ही