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जीवाजीवाधिकार
एवमेवंप्रकारा इतरेऽपि बहुप्रकारा: परमात्मेति व्यपदिशन्ति दुर्मेधसः किन्तु न ते परमार्थवादिभिः परमार्थवादिन इति निर्दिश्यते ।।३९-४३॥ कुतः -
एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति ।।४४।।
एते सर्वे भावाः पुदगलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः।
केवलिजिनैर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यते ।।४४।। - इसप्रकार आठ प्रकार तो यहाँ कहे ही हैं; परन्तु पर को आत्मा माननेवाले दुर्बुद्धि मात्र इतने ही नहीं हैं; और भी अनेक प्रकार के दुर्बुद्धि जगत में हैं, जो पर को ही आत्मा मानते हैं; किन्तु वे सब परमार्थवादी नहीं हैं, सत्यार्थवादी नहीं हैं, सत्य बोलनेवाले नहीं हैं - ऐसा परमार्थवादी कहते हैं, निश्चयनय के जानकार कहते हैं, सर्वज्ञ परमात्मा कहते हैं।"
उक्त कथन में जिन आठ प्रकार के पदार्थों या भावों को जीव कहा गया है; उन्हें जीव मानने में एक ही तर्क दिया गया है कि उनसे भिन्न अन्य कोई जीव उन्हें दिखाई नहीं देता; और यह तर्क भी उनके स्वयं के अनुभव के आधार पर ही प्रतिष्ठित है।
आगामी गाथा में उनकी इस मान्यता पर सतर्क विचार किया जायेगा।
३९ से ४३वीं गाथा तक जिन आठ प्रकार के मिथ्यावादियों की चर्चा की गई है, वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं; उनके द्वारा माना गया आत्मा का स्वरूप सच्चा क्यों नहीं है ?
इस प्रश्न के उत्तर में ४४वीं गाथा का जन्म हआ है: क्योंकि उक्त गाथाओं में परात्मवादियों की मान्यता पर तो प्रकाश डाला गया है और यह भी कहा गया है कि वे सत्यार्थवादी नहीं हैं, पर यह नहीं बताया गया है कि वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं ? अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है। इसी प्रश्न का समाधान यह ४४वीं गाथा करती है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) ये भाव सब पुद्गल दरव परिणाम से निष्पन्न हैं।
यह कहा है जिनदेव ने 'ये जीव हैं' - कैसे कहें।।४४।। ये पूर्वकथित अध्यवसान आदि सभी भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं - ऐसा केवली भगवान ने कहा है; अत: उन्हें जीव कैसे कहा जा सकता है ?
उक्त गाथा में सर्वज्ञ परमात्मा की दहाई देकर यह बात कही गई है कि जिन्हें सर्वज्ञ भगवान और उनका आगम पौद्गलिक कहता है; उन्हें जीव कैसे माना जा सकता है ?
गाथा में तो मात्र सर्वज्ञ कथित आगम की बात कही है, पर आचार्य अमतचन्द्र आगम के साथ युक्ति और अनुभव की बात भी करते हैं। वे कहते हैं कि इन्हें जीव मानना न केवल आगम से ही बाधित है, अपितु युक्ति और अनुभव से भी यह बात सिद्ध होती है कि उक्त आठों प्रकार की मान्यतायें असत्य हैं।
वे अपनी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हैं; जो इसप्रकार है -