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पूर्वरंग
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भगवान आत्मा और इन तीनों प्रकार की इन्द्रियों को एकमेक मानना, इनमें कोई भेद नहीं कर पाना भी ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष है।
तीनों प्रकार की इन्द्रियों को ज्ञेय जानकर ज्ञाता भगवान आत्मा को उनसे भिन्न जानना, मानना, अनुभव करना ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का परिहार है तथा इसी को तीर्थंकर भगवान की प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति कहते हैं ।
अथ भाव्यभावकसंकरदोषपरिहारेण
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जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं ।
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति ।। ३२ । । जिदमोहस्स दुजइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तड़या हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं ।। ३३ ।।
यो मोहं तु जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम् । तं जितमोहं साधुं परमार्थविज्ञायका ब्रुवन्ति । । ३२।। जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः । तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः ||३३||
इस गाथा में जितेन्द्रियजिन, ज्ञेय - ज्ञायकसंकरदोष का परिहार और निश्चय स्तुति - इन तीन बातों को एकसाथ सम्मिलित किया गया है। जो इन्द्रियों को जीतता है, उसे जितेन्द्रियजिन कहते हैं और इन्द्रियों को जीतना ही प्रथम प्रकार की निश्चय स्तुति है तथा वह ज्ञेय - ज्ञायकसंकरदोष के परिहारपूर्वक होती है। इसप्रकार ये तीनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि इसे प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति क्यों कहा जा रहा है, क्या कोई दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति भी होती है ?
हाँ, होती है। निश्चयस्तुति तीन प्रकार की होती है। प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति का दिग्दर्शन तो ३१वीं गाथा में हो चुका है और अब ३२वीं व ३३वीं गाथा में दूसरे व तीसरे प्रकार की निश्चयस्तुति की बात होगी। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है.
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( हरिगीत )
मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा । जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।। ३२ ।। सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक्श्रमण का । तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।। ३३ ।।
जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा को ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यभावों से अधिक जानता है, भिन्न जानता है; उस मुनि को परमार्थ के जाननेवाले जितमोह कहते हैं ।
जिसने मोह को जीत लिया है, ऐसे साधु के जब मोह क्षीण होकर सत्ता में से नष्ट हो, तब