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पूर्वरंग
इसके लिए जीवन का सर्वस्व समर्पण करना उचित नहीं है, सर्वस्व समर्पण तो निज भगवान आत्मा पर ही करना है। उक्त बात को सुनकर अज्ञानी कहता है कि - अथाहाप्रतिबुद्धः -
जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चेव । सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ।।२६।।
यदि जीवो न शरीरं तीर्थकराचार्यसंस्तुतिश्चैव।
सर्वापि भवति मिथ्या तेन त आत्मा भवति देहः ।।२६।। यदि य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यं न भवेत्तदा -
(शार्दूलविक्रीडित) कात्यैव स्नपयंति ये दशदिशो धाम्ना निरुंधति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णंति रूपेण ये। दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरंतोऽमृतं
वंद्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थश्वराः सूरयः ।।२४।। इत्यादिका तीर्थकराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्यात् । ततो य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यमिति ममैकांतिकी प्रतिपत्तिः।
(हरिगीत ) यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन ।
सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा ।।२६।। अज्ञानी जीव कहता है कि यदि जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकरों और आचार्यों की जिनागम में जो स्तुति की गई है। वह सभी मिथ्या है। इसलिए हम समझते हैं कि देह ही आत्मा है।
पिछली गाथाओं में देह और आत्मा की भिन्नता की बात विस्तार से समझाई गई है और यह प्रेरणा भी दी गई है कि हे भाई! तू कैसे भी करके मर-पच कर भी इस देह से एकत्व के मोह को छोड़ दे।
उक्त संदर्भ में अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) का कहना यह है कि जैनशास्त्रों में देह के गुणों के आधार पर भी तीर्थंकर भगवन्तों एवं आचार्यों की स्तुति की गई है। ऐसी स्थिति में यदि देह को जीव नहीं मानेंगे तो वह स्तुति मिथ्या सिद्ध होगी। अत: भलाई इसी में है कि हम देह को ही जीव स्वीकार कर लें।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की आत्मख्याति टीका लिखते हुए एक छन्द के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि देह के आश्रय से तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति किसप्रकार की जाती है। उस छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से।