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पूर्वरंग
अत: यह सुनिश्चित है कि ज्ञान के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होने पर भी जबतक यह आत्मा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा को जानकर, उसमें अपनत्व स्थापित नहीं करता; तबतक अज्ञानी ही रहता है। तर्हि कियंतं कालमयमप्रतिबुद्धो भवतीत्यभिधीयताम् -
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकंच कम्मणोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।।१९।।
कर्मणि नोकर्मणि चाहमित्यहकं च कर्म नोकर्म।
यावदेषा खलु बुद्धिरप्रतिबुद्धो भवति तावत् ।।१९।। यथा स्पर्शरसगंधवर्णादिभावेषु पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधेषु घटोऽयमिति घटे च स्पर्शरसगंधवर्णादिभावाः पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानुभूतिस्तथा कर्मणि मोहादिष्वंतरंगेषु नोकर्मणि शरीरादिषु बहिरंगेषु चात्मतिरस्कारिषु पुद्गल
यदि ऐसा है तो यह आत्मा कबतक अप्रतिबुद्ध रहेगा, अज्ञानी रहेगा; ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर उसके उत्तरस्वरूप आगामी गाथा का उदय हुआ है। मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी।
यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी ।।१९।। जबतक यह आत्मा ज्ञानावरणी आदि द्रव्यकर्मों, मोह-राग-द्वेषादि भावकों एवं शरीरादि नोकर्मों में अहंबुद्धि रखता है, ममत्वबुद्धि रखता है; यह मानता रहता है कि ये सभी मैं हूँ और मुझमें ये सभी कर्म-नोकर्म हैं' - तबतक अप्रतिबुद्ध रहता है, अज्ञानी रहता है। तात्पर्य यह है कि कर्म-नोकर्म में अहंबुद्धि एवं ममत्वबुद्धि ही अज्ञान है। अहंबुद्धि को एकत्वबुद्धि एवं ममत्वबुद्धि को स्वामित्वबुद्धि भी कहते हैं।
परपदार्थों और उनके निमित्त से होनेवाले विकारीभावों में अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि एवं भोक्तृत्वबुद्धि ही अज्ञान है, अप्रतिबुद्धता है। __ 'ये ही मैं हूँ' - इसप्रकार की मान्यता का नाम अहंबुद्धि है, एकत्वबुद्धि है और ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ' - इसप्रकार की मान्यता का नाम ममत्वबुद्धि है, स्वामित्वबुद्धि है। इसीप्रकार 'मैं इनका कर्ता हूँ, ये मेरे कर्ता हैं' - इसप्रकार की मान्यता का नाम कर्तृत्वबुद्धि है और मैं इनका भोक्ता हूँ, ये मेरे भोक्ता हैं - इसप्रकार की बुद्धि का नाम भोक्तृत्वबुद्धि है।
इनमें कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि का निषेध तो कर्ता-कर्म अधिकार में किया जायेगा; यहाँ तो एकत्वबुद्धि और ममत्वबुद्धि के सन्दर्भ में ही विचार अपेक्षित है। इसी बात को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जिसप्रकार स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि भावों में तथा चौड़ा, गहरा, अवगाहरूप उदरादि के आकार परिणत हुए पुद्गलस्कन्धों में 'यह घट है' - इसप्रकार की अनुभूति होती है और