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समयसार
सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह। पुद्गलमयी हो किसतरह किसतरह तू अपना कहे ? ॥२४।। यदि स पुद्गलद्रव्यीभूतो जीवत्वमागतमितरत् ।
तच्छक्तो वक्तुं यन्ममेदं पुद्गलं द्रव्यम् ।।२५।। युगपदनेकविधस्य बंधनोपाधे: सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रोपाश्रयोपरक्तः स्फटिकोपल इवात्यंततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिर्महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाण: पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । ___अथायमेव प्रतिबोध्यते - रे दुरात्मन् आत्मपंसन् जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्यवहारित्वम् । दूरनिरस्तसमस्तसंदेहविपर्यासानध्यवसायेन विश्वकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फुटीकृत किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि,
जीवमय पुद्गल तथा पुद्गलमयी हो जीव जब। 'ये मेरे पुद्गल द्रव्य हैं'- यह कहा जा सकता है
त ब । । २ ५ । । जिसकी मति अज्ञान से मोहित है और जो मोह-राग-द्वेष आदि अनेक भावों से युक्त है; ऐसा जीव कहता है कि ये शरीरादि बद्ध और धन-धान्यादि अबद्ध पुद्गलद्रव्य मेरे हैं।
उसे समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि सर्वज्ञ के ज्ञान द्वारा देखा गया जो सदा उपयोगलक्षणवाला जीव है, वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो सकता है कि जिससे तू कहता है कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है।
यदि जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप हो जाये और पुद्गलद्रव्य जीवत्व को प्राप्त करे तो तू कह सकता है कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है।
पर यह तो सम्भव नहीं है; अतः तुम्हारा यह कहना ठीक नहीं है कि शरीरादि बद्ध और धनधान्यादि अबद्ध पर-पदार्थ मेरे हैं।
गाथा की भावना को आत्मसात करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में अनेक उदाहरणों से गाथा के मर्म को खोलते हुए कहते हैं -
"जिसप्रकार स्फटिक पाषाण में अनेकप्रकार के रंगों की निकटता के कारण अनेकरूपता दिखाई देती है, स्फटिक का निर्मलस्वभाव दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार एक ही साथ अनेकप्रकार के बंधन की उपाधि की अतिनिकटता से वेगपूर्वक बहते हुए अस्वभावभावों के संयोगवश अपने स्वभावभाव के तिरोभूत हो जाने से, जिसकी भेदज्ञानज्योति पूर्णत: अस्त हो गई है और अज्ञान से विमोहित है हृदय जिसका - ऐसा अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) जीव स्व-पर का भेद न करके उन अस्वभावभावों को अपना मानता हुआ पुद्गलद्रव्य में अपनापन स्थापित करता है।
ऐसे अज्ञानीजीव को समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे दुरात्मन् ! घास और अनाज को परम-अविवेकपूर्वक एकसाथ खानेवाले हाथी के समान तू स्व और पर को मिलाकर एक