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समयसार यह जानकर तथा आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके ज्ञान के घनपिण्ड और नित्य इस आत्मा को सदा ही देखना-जानना चाहिए।
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं। अपदेससंतमझ पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।।१५।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम्।
अपदेशसान्तमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम् ।।१५।। येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोनुभूतिः सा खल्वखिलस्य जिनशासनस्यानुभूति: श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्, ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः।
यहाँ ज्ञान और आत्मा को एक मानकर ही बात की गई है। इसकारण आत्मा की अनुभूति को ही ज्ञान की अनुभूति कहा है। ज्ञान आत्मा का गुण है और आत्मा गुणी द्रव्य है। गुण-गुणी को अभेद मानकर आत्मानुभूति को ज्ञानानुभूति कहा है। ज्ञानगुण आत्मद्रव्य का लक्षण है। आत्मा की पहिचान ज्ञानगुण से ही होती है। इसलिए लक्ष्य-लक्षण के अभेद से भी ज्ञान को आत्मा कहा जाता है। ___ शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा की अनुभूति ही आत्मानुभूति कहलाती है, इसकारण ही यहाँ आत्मानुभूति को शुद्धनयात्मिका कहा गया है। ___ आत्मानुभूति की पावन प्रेरणा देनेवाले इस कलश के बाद अब आगामी गाथा में कहते हैं कि
जो व्यक्ति शुद्धनय के विषयभूत उक्त आत्मा की अनुभूति करता है, उसे जानता है; वह सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को।
द्रव्य एवं भावश्रुतमय सकल जिनशासन लहे ।।१५।। जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पष्ट, अनन्य, अविशेष (तथा उपलक्षण से नियत और असंयक्त) देखता है; वह सम्पूर्ण जिनशासन को देखता है। वह जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत और अभ्यन्तर ज्ञानरूप भाव श्रुतवाला है।
१४वीं गाथा में शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के जो पाँच विशेषण दिये गये हैं; उनमें से अबद्धस्पृष्ट, अनन्य और अविशेष - ये तीन विशेषण तो इस गाथा में वैसे के वैसे ही दुहराये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि वे इन विशेषणों के माध्यम से इस गाथा में भी उसी आत्मा की चर्चा कर रहे हैं, जिसकी चर्चा १४वीं गाथा में की गई थी; गाथा में स्थान न होने से नियत और असंयुक्त विशेषणों का उल्लेख नहीं हो पाया है। अत: उपलक्षण से इन्हें भी शामिल कर लेना उचित ही है।
इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त - ऐसे पाँचभावस्वरूप आपठा-तकी अनुमति है वह निश्चय से समस्त जिनशासन की अनुभूति है; क्योंकि श्रुतज्ञान