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________________ ४६ समयसार का विषयभूत वह भगवान आत्मा हमारे ज्ञान में नित्य प्रकाशित रहे - ऐसी भावना आगामी कलश में व्यक्त की गई है । (पृथ्वी) अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहिर्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्।।१४।। मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है। - (रोला ) खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है । ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है ।। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल । जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो । । १४ । । जिसप्रकार नमक की डली खारेपन से लबालब भरी हुई है; उसीप्रकार आत्मा ज्ञानरस से लबालब भरा हुआ है। वह ज्ञेयों के आकाररूप में खण्डित नहीं होता; इसलिए अखण्डित है, अनाकुल है, अविनाशीरूप से अन्तर में दैदीप्यमान है, सहजरूप से सदा विलसित हो रहा है और चैतन्य के परिणमन से परिपूर्ण है; ऐसा उत्कृष्ट तेजोमय आत्मा हमें प्राप्त हो । उक्त कलश में ज्ञानानन्द से परिपूर्ण, अनाकुलस्वभावी, अखण्ड, अविनाशी आत्मा हमारी अनुभूति में सदा प्रकाशित रहे - यह भावना भाई गई है। आत्मख्याति के अनुसार जो १५वीं व १६वीं गाथायें हैं, उनके बीच जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति एक गाथा पाई जाती है, जो आत्मख्याति में नहीं है । वह गाथा इसप्रकार है में - आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ।। ( हरिगीत ) निज ज्ञान में है आतमा दर्शन चरित में आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आतमा ।। निश्चय से मेरे ज्ञान में आत्मा ही है। मेरे दर्शन में, चारित्र में और प्रत्याख्यान में भी आत्मा ही है । इसीप्रकार संवर और योग में भी आत्मा ही है । यह गाथा आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में ही बंधाधिकार में २९६ गाथा के रूप में भी उपलब्ध होती है। उक्त दोनों गाथायें यद्यपि एक-सी ही हैं; तथापि जीवाधिकार में इसका अर्थ सामान्यरूप से
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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