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________________ पूर्वरंग करके आगे बढ़ गये हैं; पर बंधाधिकार में इसका अर्थ सहेतुक विस्तार से किया गया है; जो मूलतः पठनीय है। ४७ आत्मख्याति के बंधाधिकार में भी इसी से मिलती-जुलती थोड़े-बहुत अन्तर के साथ एक गाथा प्राप्त होती है, जिसका क्रमांक २७७ है। वह गाथा इसप्रकार है - आदा खु मज्झ गाणं आदा मे दंसणं चरितं च । आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ॥ ( हरिगीत ) निज आतमा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आतमा ।। निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संवर तथा योग है । आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति की गाथाओं के अर्थ को सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तात्पर्यवृत्ति की गाथाओं में तो यह बताया गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, योग, संवर और प्रत्याख्यान में आत्मा ही है; किन्तु आत्मख्याति में इन सभी को आत्मा ही गया है। समान-सी दिखनेवाली ये गाथायें आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति के बंधाधिकार में एक ही क्रम में एक ही स्थान पर आई हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि तात्पर्यवृत्ति में यह पुनरावृत्ति प्रकरण की आवश्यकतानुसार ही हुई है, पर हुई है। ऐसी गाथायें तो ध्यान में हैं कि जो आचार्य कुन्दकुन्द के विभिन्न ग्रन्थों में हूबहू पाई जाती हैं; पर एक ही ग्रन्थ में अनेक बार पाई जानेवाली गाथा अभ यह एक ही ध्यान में आई है। पिछली गाथा में कहा गया है कि जो व्यक्ति शुद्धनय के विषयभूत अबद्धस्पृष्टादि भावों से संयुक्त भगवान आत्मा को जानता है, वह सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है; क्योंकि वह शुद्धआत्मा ही सम्पूर्ण जिनशासन का मूल प्रतिपाद्य है, प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु है । उसी शुद्धात्मा की महिमा बताते हुए इस गाथा में कहा गया है कि वह आत्मा ही ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, प्रत्याख्यान है, संवर है, योग है; सबकुछ वह एक शुद्धात्मा ही है। उस शुद्धात्मा की आराधना से, साधना से ही ज्ञान-दर्शन - चारित्र की प्राप्ति होती है, प्रत्याख्यान होता है, संवर होता है और योग भी होता है ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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