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________________ समयसार अब आगामी (१६वीं) गाथा की उत्थानिकारूप कलश कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - ४८ ( अनुष्टुभ् ) एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ।।१५।। दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। १६ ।। दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यम् । तानि पुनर्जानीहि त्रीण्यप्यात्मानं चैव निश्चयतः ।। १६ ।। ( हरिगीत ) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये । यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये ।। बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये । अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ।। १५ ।। स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक पुरुष साध्यभाव और साधकभाव से इस ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्मा की ही उपासना करें। यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र उपदेश दे रहे हैं, आदेश दे रहे हैं कि आत्मार्थी पुरुषो ! आत्मा का कल्याण चाहनेवाले सत्पुरुषो !! तुम निरन्तर ज्ञान के घनपिण्ड, आनन्द के रसकन्द इस भगवान आत्मा की ही उपासना करो, आराधना करो; चाहे साध्यभाव से करो, चाहे साधकभाव से करो, पर एक निज भगवान आत्मा की ही उपासना करो। उपासना करने योग्य तो एकमात्र यह ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का रसकन्द एक भगवान आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं । ( हरिगीत ) चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा ।। १६ ।। साधुपुरुष को दर्शन - ज्ञान- चारित्र का सदा सेवन करना चाहिए और उन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही जानो । गाथा में समागत 'साधु' शब्द का अर्थ पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा एवं सहजानन्दजी वर्णी ने साधुपुरुष किया है, जो पूर्णतः सत्य प्रतीत होता है; क्योंकि इस ग्रन्थराज में मूलतः भद्र मिथ्यादृष्ट गृहस्थों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का ही मार्ग बताया गया है। 'साधु' शब्द देखकर यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि यह ग्रन्थराज मुनिराजों के लिए ही बनाया गया है और इसे पढ़ने का अधिकार भी मुनिराजों को ही है, सद्गृहस्थों को नहीं; क्योंकि समयसार में सर्वत्र ही अज्ञानियों को समझाने
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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