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पूर्वरंग का प्रयास किया गया है। मुनिराज तो ज्ञानी धर्मात्मा होते हैं, सम्यग्दृष्टि तो होते ही हैं; उन्हें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रेरणा देने, मार्ग बताने की क्या आवश्यकता है ? ___ यदि इसे पढ़ने का अधिकार गृहस्थों को नहीं है तो फिर पाण्डे राजमलजी, पण्डित बनारसीदासजी, पण्डित टोडरमलजी, पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा, श्रीमद् रायचन्दजी, ब्र. शीतलप्रसादजी जैसे विद्वानों ने इसका अध्ययन कैसे किया ? बिना अध्ययन किये इसकी टीकायें लिखना, इसके उद्धरण अपने ग्रन्थों में देना कैसे सम्भव था ? कहते हैं कि क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी को तो आत्मख्याति कण्ठस्थ थी और सहजानन्दजी वर्णी ने तो इसकी सप्तदशांगी टीका लिखी है। ये भी तो मुनिराज नहीं थे, क्षुल्लक तो श्रावकों में ही आते हैं; क्योंकि ग्यारह प्रतिमायें श्रावकों की ही होती हैं।
सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसा कहनेवाले गृहस्थ विद्वान स्वयं भी इसका अध्ययन करते देखे जाते हैं। जो विद्वान श्रावकों के लिए समयसार के अध्ययन का निषेध करते हैं, उन्होंने स्वयं इसका अध्ययन किया है या नहीं?
यदि श्रावक होकर भी आपने अध्ययन किया है तो दूसरों को मना क्यों करते हैं और यदि नहीं किया तो फिर बिना देखे ही मना करने को कैसे उचित माना जा सकता है ?
इस ग्रन्थ में भी अनेक स्थानों पर ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि जिससे यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थराज अज्ञानियों को समझाने के लिए ही लिखा गया है। आठवीं गाथा में तो एकदम अज्ञानी शिष्य लिया है। इसीप्रकार २६-२७वीं गाथा में एवं ३८वीं गाथा में भी अत्यन्त अप्रतिबुद्ध की चर्चा की है. नयविभाग से अपरिचित शिष्य लिया है।
२३ से २५ तक की गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं - 'अब अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) को समझाने के लिए व्यवसाय करते हैं।' __'साधु शब्द का अर्थ सज्जनपुरुष होता है।' इसके भी अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। नीतिसम्बन्धी निम्नांकित छन्द तो प्रसिद्ध ही है -
“विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति परेषां परिपीडनाय ।
खलस्य साधो:विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय चरक्षणाय ।। दुर्जनों की विद्या विवाद के लिए होती है, धन मद के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है; जबकि साधुपुरुषों की विद्या ज्ञान के लिए होती है, धन दान के लिए होता है और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।”
उक्त छन्द के 'साधु' शब्द का प्रयोग मुनिराज के अर्थ में नहीं, अपितु सज्जनपुरुष के अर्थ में ही हुआ है; क्योंकि मुनिराजों के पास धन कहाँ होता है ? 'साधु का धन दान देने के लिए होता है' - इस वाक्य से ही स्पष्ट है कि यहाँ साधु शब्द का प्रयोग धनवान सज्जन गृहस्थ के लिए किया गया है। ___इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि यह ग्रन्थ अज्ञानियों के लिए ही है, मुनिराजों के लिए है ही नहीं; मुनिराजों के लिए भी इस ग्रन्थराज का स्वाध्याय अत्यन्त उपयोगी है। हम तो मात्र यह कहना चाहते हैं कि यह ग्रन्थराज अपनी-अपनी योग्यतानुसार ज्ञानी-अज्ञानी, श्रावक-साधु सभी के