Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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।।श्री।।
पंडित सदासुखदासजी कासलीवाल
खण्डेलवाल जातिय नररत्न का जीवन परिचय पं. सदासुखदासजी कासलीवाल (डेडाका ) पं. राजमलजी व आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी की परम्परा के विद्वान हुए है। वे पं. जयचन्दजी छाबड़ा के प्रशिष्य व पं. मन्नालालजी के शिष्य थे। अतः आपके विचारों पर उनकी छाया स्वाभाविकतया पूर्णरूप से पड़ी जान पड़ती है। उन्होंने अपना पूर्ण जीवन माँ सरस्वती की उपासना में व्यतीत किया और ज्ञानरूपी महादान की परम्परा को आजतक अक्षुण्ण बनाए रखने का आपने ही पूर्ण श्रेय प्राप्त किया है।
(आज से करीब दो सौ वर्ष पूर्व ई. सन् १७९५) पं. सदासुखदासजी कासलीवाल का जन्म जयपुर में चैत बदी १४ सम्वत् १८५२ में हुआ था। आपके पिता का नाम दुलीचन्दजी था। आपके पुत्र गणेशीलालजी थे। उनके दत्तक पुत्र श्री राजूलालजी हुए और राजूलालजी के पुत्र मूलचन्दजी थे। अब आपके वंश में कोई नहीं है। ___ मनिहारों का रास्ता जयपुर में स्थित आपके मकान में एक चैत्यालय जो आज भी डेडाकों का चैत्यालय कहलाता है। पंडितजी के पूर्वज डेडराजजी थे, अतः उन्हीं के नाम से " डेडाका” कहलाने लगे। उन्होंने अर्थ प्रकाशिका की प्रशस्ति में स्वयं कहा है:
डेडराज के वंशमाँहि, इक किंचित ज्ञाता, दुलीचन्द का पुत्र कासलीवाल विख्याता । नाम सदासुख कहें , आत्म सुख का बहु इच्छुक,
सो जिनवाणी प्रसाद विषयतै भये निरिच्छुक ।। भगवती आराधना वचनिका की प्रशस्ति में कहा है :
खंडेलज श्रावक कुल ठाम, तिनमें एक सदासुख नाम।
गोत्र कासलीवाल जु कहै , नित जिनवाणी सेवन चहै।। पं. सदासुखदासजी की विद्वत्ता की ख्याति सर्वत्र फैली हुई थी। उनकी चित्तवृति, सदाचारिता, आत्मनिर्भरता, अध्यात्म रसिकता, धर्मात्माओं और साधर्मियों के प्रति वात्सल्यता, जिनवाणी का निरन्तर स्वाध्याय चिन्तवन आदि से ओतप्रोत थी।
प्रायः प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में कुल परम्परा से प्राप्त पंथ या आम्नाय आदि में जन्म लेकर और किसी न किसी रूप में वह उसका आजीवन निर्वाह करने का प्रयास करता रहता
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