Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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भगवान् की मूर्ति प्रकट हो गई। स्तवन पूर्ण हुआ। यह स्तवन स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है। यह कथा ब्रह्म नेमिदत्त कथा कोष के आधार पर है।
जिनशासन के अलौकिक दैदीप्यमान सूर्य देश में जिस समय बौद्धादिकों का प्रबल आतंक छाया हुवा था और लोग उनके नैरात्मवाद, शून्यवाद, क्षणिकवादादि सिद्धान्तों से संत्रस्त थे, उस समय दक्षिण भारत में आपने उदय होकर जो अनेकान्त एवं स्याद्वाद का डंका बजाया वह बड़े ही महत्व का है एवं चिरस्मरणीय है। आपको जिनशासन का प्रणेता तक लिखा गया है। आपके परिचय के सम्बन्ध में निम्न पद्य है।
“आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट पण्डितोऽहं दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिककोऽहम। राजन्नस्यां जलधिवलया मे खलायामिलाया -
माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्।। __ मैं आचार्य हूँ, कवि हूँ, शास्त्रार्थियों में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिष हूँ, वैद्य हूँ, कवि हूँ, मान्त्रिक हूँ, तान्त्रिक हूँ, हे राजन्! इस सम्पूर्ण पृथ्वी में मैं आज्ञासिद्ध हूँ। अधिक क्या कहूँ, सिद्ध सारस्वत हूँ।
शुभचन्द्राचार्य ने आपको 'भारत भूषण' लिखा है आप बहुत ही उत्तमोत्तम गुणों के स्वामी थे फिर भी कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामक चार गुण आप में असाधारण कोटि की योग्यता वाले थे जैसा कि आज से ग्यारह सो वर्ष पहिले के विद्वान् भगवज्जिनसेनाचार्य ने निम्न वाक्य से आदिपुराण में स्मरण किया है।
कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि।
यशः सामन्त भद्रीयं मूनि चूडामणीयते।।४४।। यशोधर चरित्र के कर्त्ता महाकवि वादिराज सूरि ने आपको उत्कृष्ट काव्य माणिक्यों का रोहण (पर्वत) सूचित किया है। अलंकर चिन्ता मणि में अजित सेनाचार्य ने आपको ‘कवि कुञ्जर मुनि वंद्य और निजानन्द' लिखा है। वरांग चरित्र में श्री वर्धमान सूरि ने आपको 'महाकवीश्वर' और 'सुतर्क शास्त्रामृत सागर' बताया है। ब्रह्म अजित ने हनुमच्चरित्र में आपको भव्यरूप कमदों को प्रकल्लित करने वाला चन्द्रमा लिखा है तथा साथ में यह भी प्रकट किया है कि वे 'दुर्वादियों 'की वादरूपी खाज (खुजली) को मिटाने के लिये अद्वितीय महौषधि थे। इसके अलावा भी श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में आपकों ‘वादीभव जांकुश सुक्तिजाल स्फुटरत्नदीप' वादिसिंह, अनेकान्त जयपताका आदि आदि अनेकों विशेषणों से स्मरण किया गया है।
आपका वाद क्षेत्र संकुचित नहीं था। आपने उसी देश में अपने वाद की विजय दुंदुभि नहीं बजाई, जिसमें वे उत्पन्न हुये थे बल्कि सारे भारत वर्ष को अपने वाद का लीला स्थल बनाया था।
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