Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 14
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्रवणबेलगोल के कुछ शिलालेखों से इतना पता चलता है। कि आप श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त मुनि के वंशज पद्मनन्दि अपर नाम कोन्ड कुन्द मुनिराज उनके वशंज उमास्वाति की वशंपरम्परा में हुये थे ( शिलालेख नम्बर ४०) ___ मुनि जीवन और आपत् काल :- बड़े ही उत्साह के साथ मुनि धर्म का पालन करते हुए जब 'मुएवकहल्ली' ग्राम में धर्म ध्यान सहित मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे और अनेक दुर्द्धर तपश्चरण द्वारा आत्मोन्नति के पथ पर बढ़ रहे थे उस समय असाता वेदनीय कर्म के प्रबल उदय से आपको 'भस्मक' नाम का महारोग हो गया था। मुनि चर्या में इस रोग का शमन होना असंभव जान कर आप अपने गुरु के पास पहुंचे ओर उनसे रोग का हाल कहा तथा सल्लेखना धारण करने की आज्ञा चाही। गुरु महाराज ने सब परिस्थिति जानकर उन्हें कहा कि सल्लेखना का समय नहीं आया है और आप द्वारा वीर शासन कार्य के उद्धार की आशा है। अतः जहाँ पर जिस भेष में रहकर रोगशमन के योग्य तृप्ति भोजन प्राप्त हो वहाँ जाकर उसी वेष को धारण करलो। रोग उपशान्त होने पर फिर से जैन दीक्षा धारण करके सब कार्यो को संभाल लेना। गुरु की आज्ञा लेकर आपने दिगम्बर वेष का त्याग किया। आप वहाँ से चलकर कांची पहुँचे और वहाँ के राजा के पास जाकर शिवभोग की विशाल अन्न राशि को शिवपिण्डी को खिला सकने की बात कही। पाषाण निर्मित शिवजी की पिण्डी साक्षात् भोग ग्रहण करे इससे बढ़कर राजा को और क्या चाहिये था। वहां के मन्दिर के व्यवस्थापक ने आपको मन्दिर जी में रहने की स्वीकृति दे दी। मन्दिर के किवाड बन्द करके वे स्वयं विशाल अन्नराशि को खाने लगे और लोगों को बता देते थे कि शिवजीने भोग ग्रहण कर लिया। शिव भोग से उनकी व्याधि धीरे-धीरे ठीक होने लगी और भोजन बचने लगा। अन्त में गुप्तचरों से पता लगा कि ये शिव भक्त नहीं है। इससे राजा बहुत क्रोधित हुआ और इन्हें यर्थाथता बताने को कहा। उस समय समन्तभद्र ने निम्न श्लोक में अपना परिचय दिया। कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्ड पुण्ड्रोण्डे शाक्य भिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट्। वाराणस्यामभूवं भुवं शशधरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी राजन् यस्याऽस्ति शक्तिःस वदतु-पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी।। कांची में मलिन वेषधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुस नगर में भस्म रमाकर शरीर को श्वेत किया, पुण्डोण्ड् में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दशपुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्यासी बना, वाराणसी मे श्वेत वस्त्रधारी तपस्वी बना। राजन् आपके सामने दिगम्बर जैनवादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो मुझ से शास्त्रार्थ कर ले। राजा ने शिव मूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया। समन्तभद्र कवि थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन शुरू किया। जब वे आठवें तीर्थंकर चन्दप्रभु का स्तवन कर रहे थे, तब चन्द्रप्रभु Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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