Book Title: Rajendrasuri Smarak Granth
Author(s): Yatindrasuri
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh

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Page 16
________________ श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । ९ अभिमान, दुर्भावना, विषयाशा, ईर्ष्या, लोभादि दुर्गुणों को नाश करने के लिये ही शास्त्राभ्यास या ज्ञानाभ्यास करके पाण्डित्य प्राप्त किया जाता है। यदि हृदयभवन में पंडित होकर भी ये दुर्गुण निवास करते रहे तो पंडित और मूर्ख दोनों में कुछ भेद नहीं है-दोनों को समान ही जानना चाहिये। पंडित, विद्वान या जानकार बनना है तो हृदय से अभिमानादि दुर्गुणों को हटा देना ही सर्वश्रेष्ठ हैं । १० सुख और दुःख इन दोनों साधनों का विधाता और भोक्ता केवल आत्मा है और वह मित्र भी है और दुश्मन भी। क्रोधादि वशवर्ती आत्मा दुःखपरम्परा का और समतादि वशवर्ती आत्मा सुखपरम्परा का अधिकारी बन जाता है। अतः सुधरना और बिगड़ना सब कुछ आत्मा पर ही निर्भर है। यथाकरणी आत्मा को फल अवश्य मिलता है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा का वास्तविक दमन कर लेता है उसका दुनियां में कोई दुश्मन नहीं रहता । वह प्रतिदिन अपनी उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ अपने ध्येय पर जा बैठता है। ११ कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। इसकी लीला का कोई भी पार नहीं पा सकता। शास्त्रकार कहते हैं कि जीव कमों के प्रभाव से कभी देव और मनुष्य, कभी नारक और कभी पशु, कभी क्षत्रिय और कभी ब्राह्मण, कभी वैश्य और कभी शूद्र हो जाता है । इस प्रकार नाना योनियों और विविध जातियों में उत्पन्न हो भिन्न-भिन्न वेश धारण करता है और सुकृत तथा दुष्कृत कर्मोदय से संसार में उत्तम, मध्यम, जघन्य, अधम अथवा अधमाधम अवस्थाओं का अनुभव करता रहता है । इस लिये कर्मों के वेग को हटाने के लिये प्रयेक व्यक्ति को क्षमासूर बन कर यथार्थ सत्यधर्म का अवलम्बन और उसके अनुसार आचरणों का परिपालन करना चाहिये, जिससे आत्मा की आशातीत प्रगति हो सके। १२ एक ही जलाशय का जल गौ और सर्प दोनों पीते हैं, परन्तु गौ में वह जल दूध में और सर्प में जहररूप में परिणत हो जाता है । इसी प्रकार शास्रों का उपदेश भी सुपात्र में जाकर अमृत और कुपात्र में जाकर जहररूप में परिणमन करता है । विनय, नम्रता, आदर और सभ्यता से ग्रहण किया हुआ शास्त्रोपदेश आत्मकल्याणकारी ही होता है और अविनय, आशातना, कठोरता और असभ्यता से ग्रहण किया हुआ शास्रोपदेश उल्टा आत्मगुणों का घातक हो भवभ्रमण कराता है; इस लिये अविनयादि दोषों को छोड़ कर ही शास्रोपदेश ग्रहण करना चाहिये तभी आत्मा का वास्तविक उत्थान हो सकेगा। १३ उत्तम विवेकमय मार्ग सहज ही प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिये सर्व प्रथम इन्द्रियविकारों, स्वार्थपूर्ण भावनाओं और संसारियों के स्ने हबन्धनों का परित्याग

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