Book Title: Rajendrasuri Smarak Granth
Author(s): Yatindrasuri
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh

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Page 15
________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ ५ समय अमूल्य है । सुकृत कार्यों के द्वारा जो कोई उसको सफल बना लेता है, वही पुरुष जानकार और भाग्यशाली है । जो समय चला जाता है वह समय लाख प्रयत्न करने पर भी वापस नहीं मिलता । बादशाह सिकंदर जब मरण - पथारी पर पड़ा, तब उसने अपने सारे परिवारों, अमीर, उमरावों और वैद्य हकीमों को बुला कर कहाअब मैं जानेवाला हूँ, अभी इन्तेजाम बहुत करना है; अतः कोई भी मेरे जीवन का आधा घंटा भी बढ़ा दे तो उसको प्रतिमिनिट का मुंहमांगा रूपया दिया जायगा । सबने कहा कि इस संसार में ऐसा कोई भी इल्म, विद्या, जड़ीबूटी आदि नहीं है जो आयुष्य की एक पल भी अधिक या कम कर सके । बादशाहने इस प्रकार का स्पष्ट जवाब सुन कर अपने दफतर में लिख दिया कि आयुष्य की एक भी घड़ी या पल बढानेवाला कोई नहीं हैं। अतः जो इसको व्यर्थ खो देता है उसके समान संसार में दूसरा कोई मूर्ख नहीं है । २ ६ मनुष्य जीवन, शुभ सामग्री तथा वनवैभव ये तीनों बातें प्रत्येक प्राणी को पूर्व पुण्योदय से ही प्राप्त होती हैं । इन के मिल जाने पर जो व्यक्ति इनको यों ही खो देता है वह सछिद्र नौका के समान है, जो स्वयं डूबती है और अपने में बैठनेवालों को भी डुबा देती है । जो मनुष्य अपने जीवन को धर्मकरणी से व्यतीत करता है उसका जीवन चिन्तामणिरत्न के समान सार्थक है और इसी के द्वारा स्वपर का आत्म-कल्याण हो सकता है । ७ जीवन की प्रत्येक पल सारगर्भित है । उसमें विषयादि प्रमादों को कभी अवकाश नहीं देना चाहिये, तभी वे पढ़ें सार्थक होती हैं । सूत्रकार कहते हैं कि ' कालो कालं समायरे । ' जो कार्य जिस समय में नियत किया है उसको उसी समय में कर लेना चाहिये; क्योंकि समय कायम रहने का कोई भरोसा नहीं है । निर्दयता से जीवों का वध करने, असत्य भाषण करने, किसी की धनादि-वस्तु का हरण करने, परस्त्रीगमन करने, परिग्रह का अतिलोभ रखने और व्रतप्रत्याख्यानों का खाली ढोंग रचने से मनुष्य मर कर नरक में जाता है और वहाँ उसको अनेक यातनाएँ उठानी पड़ती हैं । इसलिये नरक गमन योग्य बातें सर्वथा त्याग देना चाहिये । ८ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह जैन शास्त्रकारोंने इनको पांच महाव्रतों के नाम से और अजैनशास्त्रकारोंने इनको पांच यम के नाम से बोधित किये हैं । इनको यथावत् परिपालन करने से धर्म, देश और राष्ट्र में अपूर्व शान्ति और सुख-समृद्धि स्थिर रहती है । ये बातें मनुष्यमात्र को अपने उत्थान के लिये अति आवश्यक हैं, जिससे पारस्परिक वैरसंबंध समूल नष्ट होकर मनुष्य निःसंदेह सुगतिपात्र बन जाता है ।

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