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श्री राजेन्द्रसूरि वचनामृत ।
संग्राहक-व्याख्यान-वाचस्पति श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज १ अहिंसा प्राणिमात्र का माता के समान पालन-पोषण करती है, शरीररूपी मरभूमि में अमृत-सरिता बहाती है, दुःखरूपी दावानल को बुझाने में मेघ के समान है और भव-भ्रमणरूपी महारोगों के नाश करने में रामबाण औषधि के समान काम करती है। इसी प्रकार सुखमय दीर्घायु, आरोग्यता, सौंदर्यता और मनोवांछित वस्तुओं को प्रदान करती है । इसलिये अहिंसा-धर्म का सर्व प्रकार से पालन करना चाहिये, तभी देश, धर्म, समाज और आत्मा का वास्तविक उत्थान होगा।
२ विषयभोग कर्मबन्ध के हेतु और विविध यातनाओं की प्राप्ति कराने के कारण हैं । विषयार्थी प्राणी प्रतिदिन मेरी माता, पिता, पुत्र, प्रपौत्र, भाई, मित्र, स्वजन, सम्बंधी, जायदाद, वस्त्रालंकार और खान-पान आदि सांसारिक सामग्री की खोज में ही अपना अमूल्य जीवन यों ही बिताते रहते हैं और सब को छोड़ कर केवल पाप का बोझा उठाते हुए मरण के शिकार बन जाते हैं, पर अपना कल्याण कुछ नहीं कर सकते ।
३ विषयाभिलाषी मनुष्य अपने कुटुम्बियों के निमित्त क्षुधा, तृषा सहन करता हुआ धनोपार्जनार्थ अनेक जंगलों, सम-विषम स्थानों, नदी, नालों और पर्वतीय प्रदेशों में इधर-उधर दौड़ लगाता रहता है और यथाभाग्य धन लाकर कुटुम्बियों का यह जान कर पोषण करता है कि ये समय पर मेरे दुःख में सहयोग देंगे-भागीदार बनेंगे। यों करते-करते मनुष्य जब वृद्धावस्था से घिर जाता है, तब कुटुम्बी न कोई सहयोग देते हैं और न उसके दुःख में भागीदार बनते हैं। प्रत्युत सोचते हैं कि यह कब मरे और इससे छुटकारा मिले । बस, यह है रिश्तेदारों का स्वार्थमूलक प्रेमभाव; अतः इनके प्रपंचों को छोड़ कर जो धर्मसाधन करेगा वह सुखी होगा।
४ हिंसा-प्रवृत्त मनुष्य का तस्करवृत्ति में आसक्त रहने से और परस्त्रीरत-व्यक्ति का धर्म, धन, शरीर, इज्जत आदि समस्त गुण नाश हो जाते हैं। सर्व कलाओं में धर्मकला श्रेष्ठ है, सब कथाओं में धर्मकथा श्रेष्ठ है, सब बलों मे धर्मबल बड़ा है और समस्त सुखों में मोक्ष-सुख सर्वोत्तम है । प्रत्येक प्राणी को मोक्ष-सुख प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करना चाहिये, तभी जन्म-मरण का दुःख मिट सकेगा । संसार में यही साधना सर्वश्रेष्ठ साधना है।