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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः भावार्थ-जीव द्रव्यके दो लक्षण हैं. एक तो चेतना है दूसरा उपयोग है । अनुभूतिका नाम चेतना है । वह अनुभूति ज्ञान, कर्म कर्मफलके भेदसे तीन प्रकारकी है । जो ज्ञानभावसे स्वरूपका वेदना सो तो ज्ञानचेतना है, और जो कर्मका वेदना सो कर्मचेतना है और कर्मफलका वेदना सो कर्मफलचेतना है । शुद्धाशुद्ध जीवका सामान्य लक्षण है । जो चैतन्यभावकी परणतिरूप होय प्रवते सो उपयोग है. वह उपयोग दो प्रकारका है. एक सविकल्प और दूसरा निर्विकल्प । सविकल्प उपयोग तो ज्ञानका लक्षण है और निर्विकल्प दर्शनका लक्षण है। ज्ञान आठ प्रकारका है । कुमति १ कुश्रुति २ कुअवधि ३ मति ४ श्रुति ५ अवधि ६ मनःपर्यय ७ और केवल ८ । दर्शन भी चक्षु अचक्षु अवधि और केवल इन भेदोंसे चार प्रकारका है। केवलज्ञान और केवल दर्शन ये दोय अखंड उपयोग शुद्ध जीवके लक्षण हैं. वाकीके दश उपयोग अशुद्ध जीवके होते हैं. ये तो जीवके गुण जानने । और जीवके पर्याय भी शुद्धाशुद्धके भेदसे दो प्रकारकी है। जो अगुरुलघु पड्गुणीहानिवृद्धिरूप आगम प्रमाणताकर जानी जाती है, वह तो शुद्ध पर्याय कहलाती है और जो परद्रव्यके संबंधसे चारगतिरूप नरनारकादि हैं, ते अशुद्ध आत्माकी पर्याय हैं। आगे पदार्थके नाश और उत्पादको निषेधते हैं। मणुसत्तणेण (?) णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्त जीवभावो ण णस्सदि जायदे अण्णो ॥१७॥
संस्कृतछाया. मनुष्यत्वेन नष्टो देही देवो भवतीतरो वा ।
उभयत्र जीवभावो न नश्यति न जायतेऽन्यः ॥ १७ ॥ पदार्थ- मनुष्यत्वेन ] मनुष्य पर्यायसे [ नष्टः ] विनशा [ देही ] जीव [देवः भवति ] देवपर्यायरूप परिणमता है । भावार्थ-अनादिकालसे लेकर यह संसारी जीव मोहके वशीभूत हो अज्ञानभावरूप परिणमता है । इसकारण स्वाभाविक षट्गुणी हानि वृद्धिरूप जे अगुरुलघुपर्याय धारावाही अखंडित त्रिकाल समयवर्ती है, तिन भावनपरिणमता नहीं है, विभाव भावनसे परिणमन होताहुवा मनुष्य देवता होता है. अथवा और नरकादि पर्यायोंको धारण करता है । पर्यायसे पर्यायान्तररूप होकर उपजै विनशै है । यद्यपि ऐसा है तथापि [ उभयत्र जीवभावः] संसारी पर्यायकी अपेक्षा उत्पादव्ययके होतेसन्ते भी जीवभाव कहा जाता है. आत्माका निजस्वरूप [ न नश्यति ] नाश नहिं होता. [ न जायते ] और न उत्पन्न होता । द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा सदा टंकोत्कीर्ण अविनाशी है. सदा निःकलंक शुद्धस्वरूप है।