Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 97
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । १०१ पदार्थ – [ यः] जो पुरुष [संवरेण युक्तः] संवरभावोंकर संयुक्त है तथा [आत्मार्थप्रसाधकः] आत्मीक स्वभावका साधनहारा है [ सः ] वह पुरुष [हि ] निश्चय करकें [आत्मानं ] शुद्ध चिन्मात्र आत्मस्वरूपको [ ज्ञात्वा ] जान करके [ नियतं ] सदैव [ज्ञानं] आत्माके सर्वस्वको [ ध्यायति ] ध्यावै है वही पुरुष [ कर्मरज : ] कर्मरूपी धूलिको [संधुनोति ] उडा देता है । भावार्थ—जो पुरुष कर्मोंके निरोधकर संयुक्त है, आत्मस्वरूपका जाननहारा है, सो परकार्यों से निवृत्त होकर आत्मकार्यका उद्यमी होता है, तथा अपने स्वरूपको पाकर गुणगुणी अभेदकथनकर अपने ज्ञानगुणको आपसे अभेद निश्चल अनुभव है, वह पुरुष सर्वथाप्रकार वीतराग भावोंकेद्वारा पूर्वकालमें बन्धेहुये कर्मरूपी धूलिको उडा देता है अर्थात् कर्मोंको खपा देता है । जैसें चिकनाई रहित शुद्धफटिकका थंभ निर्मल होता है उसीप्रकार निर्जराका मुख्य हेतु ध्यान है अर्थात् निर्मलताका कारण है । अब ध्यानका स्वरूप कहते हैं । जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो ज्झाणमओ जायए अगणी ॥ १४६ ॥ संस्कृतछाया. यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म । तस्य शुभाशुभदहनो ध्यानमयो जायते अग्निः ॥ १४६ ॥ पदार्थ – [ यस्य ] जिस जीवके [ रागः द्वेषः मोहः ] राग द्वेष मोह [वा ] अथवा [योगपरिकर्म ] तीन योगोंका परिणमन [ न विद्यते ] नहीं है [ तस्य ] तिस जीवके [शुभाशुभदहनः] शुभअशुभ भावोंको जलानेवाली [ ध्यानमयः ] ध्यानस्वरूपी [अग्निः] आग [जायते] उत्पन्न होती है । भावार्थ- परमात्मस्वरूपमें अडोल चैतन्यभाव जिस जीवके होय, वह ही ध्यान करनेवारा है इस ध्याता पुरुषके स्वरूपकी प्राप्ति किस प्रकार होती है सो कहते हैं, जब निश्चयं करके योगीश्वर अनादि मिथ्यावासनाके प्रभावसे दर्शन चारित्र मोहनीय कर्मके विपाकसे अनेकप्रकारके कर्मों में प्रवर्त्तनेवाले उपयोगको काललब्धि पाकर वहांसे संकोचकर अपने स्वरूपमें लावै तव निर्मोह वीतराग द्वेषरहित अत्यन्त शुद्ध स्वरूपको शुद्धात्म स्वरूपमें निष्कंप ठहरा सकै और तब ही इस भेदविज्ञानी ध्यानी के स्वरूप साधक पुरुषार्थसिद्धिका परमउपाय ध्यान उत्पन्न होता है । वह ध्यान करनहारा पुरुष निःक्रिय चैतन्यस्वरूपमें स्थिरताके साथ मग्न हो रहा है, मनवचनकायकी भावना नहिं भाता है, कर्मकांड में भी नहिं प्रवर्त्तता, समस्त शुभाशुभ कर्मइन्धनको जलाने के अर्थ अग्निवत् ज्ञानकांड

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