Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 96
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [शुभाशुभकृतस्य कर्मणः] शुभाशुभ भावोंसे उत्पन्न कियेहुये द्रव्यकमीत्रवोंका [ संवरणं ] निरोधक संवरभाव होते हैं । भावार्थ- जब इस महामुनिके सर्वथाप्रकार शुभाशुभ योगोंकी प्रवृत्तिसे निवृत्ति होती है तब उसके आगामी कर्मोंका निरोध होता है । मूलकारण भावकर्म हैं जब भावकर्म ही चले जांय तब द्रव्यकर्म कहांसे होय ? इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि शुभाशुभ भावोंका निरोध होना भावपुण्यपापसंवर होता है । यह ही भावसंवर द्रव्यपुण्यपापका निरोधक प्रधान हेतु है । इसप्रकार संवरपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा | अब निर्जरापदार्थका व्याख्यान किया जाता है । ܘܘܐ संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिठ्ठदे बहुविहेहिं । कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो यिदं ॥ १४४ ॥ संस्कृतछाया. संवरयोगाभ्यां युक्तस्तपोभिर्यचेष्टते बहुविधैः । कर्मणां निर्जरणं बहुकानां करोति स नियतं ॥ १४४ ॥ पदार्थ — [यः] जो भेद विज्ञानी [संवरयोगाभ्यां] शुभाशुभात्रवनिरोधरूप संवर और शुद्धोपयोगरूप योगोंकर [युक्तः ] संयुक्त [बहुविधैः ] नाना प्रकारके [तपोभिः] अन्तरंग बहिरंग तपोंके द्वारा [चेष्टते ] उपाय करता है [ सः ] वह पुरुष [ नियतं ] निश्चयकर [बहुकानां] बहुतसे [कर्मणां ] कर्मोकी [ निर्जरणं] निर्जरा [ करोति ] करता है । भावार्थ — जो पुरुष संवर और शुद्धोपयोगसे संयुक्त, तथा अनसन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश इन छह प्रकार के बहिरंग तप तथा प्रायश्चित्त, विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग और ध्यान इन छः प्रकारके अंतरंग तपकर सहित हैं वह बहुतसे कर्मोंकी निर्जरा करता है । इससे यह भी सिद्ध हुवा कि अनेक कर्मोंकी शक्तियोंके गालनेको समर्थ द्वादश प्रकार के तपोंसे बढा हुवा है जो शुद्धोपयोग वही भावनिर्जरा है और भावनिर्जराके अनुसार नीरस होकर पूर्वमें बंधे हुये कर्मोंका एकदेशः खिर जाना सो द्रव्यनिर्जरा है । आगें निर्जराका कारण विशेषताके साथ दिखाते हैं । जो संवरेण जुत्तो अप्पट्टप्रसाधगो हि अप्पाणं । मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं ॥ १४५ ॥ संस्कृतछाया. यः संवरेण युक्तः आत्मार्थप्रसाधको ह्यात्मानं । ज्ञात्वा ध्यायति नियतं ज्ञानं स संधुनोति कर्मरजः ॥ १४५ ॥ १ कर्म अपना रसदेकर खिर जावें उसको निर्जरा कहते हैं ।

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