Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 100
________________ १०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दुणिरोधो ॥ १५०॥ कम्मस्साभावेण य सव्व सबलोगदसी य । पावदि इंदिद्यरहिदं अव्वावाहं सुहमणंतं ॥ १५१ ॥ संस्कृतछाया. हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः । आस्रवभावेन विना जायते कर्मणस्तु निरोधः ॥ १५० ।। कर्मणामभावेन च सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च ।। प्राप्नोतीन्द्रियरहितमव्याबाधं सुखमनन्तं ॥ १५१ ॥ पदार्थ-[हेत्वभावे] रागादिकारणोंके अभावसे [नियमात् ] निश्चयसे [ज्ञानिनः] भेदविज्ञानीके [आस्रवनिरोधः] आस्रवभावका अभाव [जायते] होता है [तु] और [आस्रवभावेन विना] कर्मका आगमन न होनेसे [कर्मणः] ज्ञानावरणादि कर्मबन्धका [निरोधः ] अभाव [जायते] होता है । [च] और [कर्मणां] ज्ञानावरणादि कर्मोंके [अभावेन] विनाश करके [ सर्वज्ञः] सर्वका जाननहारा [च] और [सर्वलोकदर्शी ] सबका देखनहारा होता है तब वह [इन्द्रियरहितं] इन्द्रियाधीन नही और [अव्यावाध] बाधारहित [अनन्तं ] अपार ऐसे [सुखं ] आत्मीक सुखको [प्रामोति] प्राप्त होता है । भावार्थ-जीवके आस्रवका कारण मोहरागद्वेषरूप परिणाम हैं जब इन तीन अशुद्ध भावोंका विनाश होय तब ज्ञानी जीवके अवश्य ही आस्रवभावोंका अभाव होता है । जब ज्ञानीके आस्त्रवभावका अभाव होता है तब कर्मका नाश होता है कर्मोंके नाश होनेपर निरावरण सर्वज्ञपद तथा सर्वदर्शीपद प्रगट होता है। और अखंडित अतीन्द्रिय अनन्त सुखका अनुभवन होता है इस पदका नाम जीवन्मुक्त भावमोक्ष कहा जाता है देहधारी जीते रहते ही भावकर्मरहित सर्वथा शुद्धभावसंयुक्त मुक्त हैं इसकारण जीवन्मुक्त कहाते हैं। जो कोई पूछै कि किसप्रकार जीवन्मुक्त होते हैं सो कहते हैं कि कर्मकर आच्छादित आत्माके क्रमसे प्रवत्र्ते है जो ज्ञान क्रियारूप भाव, सो संसारी जीवके अनादि मोहनीयकर्मके वशसे अशुद्ध है. द्रव्यकर्मके आस्रवका कारण है सो भावज्ञानी जीवके मोहरागद्वेषकी प्रवृत्तिसे कमी होता है अतएव इस भेदविज्ञानीके आत्रवभावका निरोध होता है । जब इसके मोहकर्मका क्षय होता है तव इसके अत्यन्त निर्विकार वीतराग चारित्र प्रगट होता है. अनादिकालसे आस्रव आवरणद्वारा अनन्त चैतन्यशक्ति इस आत्माकी मुद्रित ( ढकीहुई ) है वही इस ज्ञानीके शुद्धक्षायोपशमिक निर्मोहज्ञानक्रियाके होतेसंते अन्तरमुहूर्तपर्यन्त रहती है तत्पश्चात् एक ही समयमें ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय कर्मके क्षय होनेसे कथंचित्प्रकार कूटस्थ अचल केवलज्ञान अवस्थाको प्राप्त होता है. उससमय ज्ञानक्रियाकी प्रवृत्ति क्रमसे नहीं होती क्योंकि भावकर्मका अभाव है सो ऐसी अवस्थाके होनेसे वह भगवान्

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