Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 111
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । ११५ भगवन्त वीतरागदेवकी अनादि वाणी में इसको भी शुभरागांशरूप अज्ञानभाव कहा है. इस अज्ञानभाव के होते संते जितने कालतांई यद्यपि यह आत्मा ज्ञानवंत भी है तथापि शुद्ध सम्प्रयोगसे मोक्ष होती है ऐसे परभावों से मुक्त मानने के अभिप्राय से खेद खिन्न हुवा प्रवर्त्ते है तब तितने काल वह ही राग अंशके अस्तित्व के परसमय में रत है, ऐसा कहा जाता है और जिस जीवके विपयादिकके राग अंशकर कलंकित अन्तरंगवृत्ति होती है, वह तो परसमयरत है ही उसकी तो बात ही न्यारी है क्योंकि जिस मोक्षमार्गमें धर्मराग निषेध है वहां निरर्गल रागका निषेध सहज में ही होता है । आगे उक्त शुभोपयोगताको कथंचित् बन्धका कारण कहा इसकारण मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा कथन करते हैं । अरहन्तसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो । वंधदि पुणं बहुसो ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥ १६६ ॥ संस्कृतछाया. अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः । वनाति पुण्यं वहुशो न तु स कर्मक्षयं करोति ॥ १६६ ॥ पदार्थ – [ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः ] अरहंत सिद्ध चैत्यालय प्रतिमा प्रवचन कहिये सिद्धान्त मुनिसमूह भेदविज्ञानादि ज्ञान इनकी जो भक्ति स्तुति सेवादिकसे परिपूर्ण प्रवीण है जो पुरुष सो [ बहुशः ] बहुतप्रकार वा बहुत बार [ पुण्यं ] अनेकप्रकारके शुभकर्मको [वश्नाति ] वांधै है [तु सः] किंतु वह पुरुष. [ कर्मक्षयं ] कर्मक्षयको [न] नहिं [करोति ] करै है । भावार्थ-जीस जीवके चित्तमें अरहन्तादिककी भक्ति होय उस पुरुषके कथंचित् मोक्षमार्ग भी हैं परन्तु भक्तिके रागांशकर शुभोपयोग भावोंको छोडता नहीं, वन्धपद्धतिका सर्वथा अभाव नहीं है. इसकारण उस भक्ति के रागांशकरके ही बहुतप्रकार पुण्य कर्मोंको बांधता है किन्तु सकलकर्मक्षयको नहिं करे है. इसकारण मोक्षमार्गियों को चाहिये कि भक्तिरागकी कणिका भी छोडें क्योंकि यह परसमयका कारण है परंपराय मोक्षको कारण साक्षात् मोक्षमार्गको घातै है इसकारण इसका निषेध है । आगें इस जीवके स्वसमयकी जा प्राप्ति नहिं होती उसका राग ही एक कारण है ऐसा कथन करते हैं । जस्स हिदयेणुमत्तं वा परदव्वं हि विजदे रागो । सो ण विजाणदि समयं सगस्स सच्चागमवरो वि ॥ १६७ ॥ संस्कृतछाया. यस्य हृदयेऽणुमात्रो वा परद्रव्ये विद्यते रागः । ऩ न विजानाति समयं स्वकस्य सर्वागमधरोऽपि ॥ १६७ ॥

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