Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 94
________________ ९८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उसको भावपापास्रव कहते हैं. उसी भावपापास्रवका निमित्त पाकर पुद्गलवर्गणारूप जो । द्रव्यकर्म हैं सो योगोंके द्वारसे आते हैं उसका नाम द्रव्यपापास्त्रव है । __ आगें पापास्रवके कारणभूत भाव विस्तारसे दिखाते हैं । सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अत्तरदाणि । णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पानप्पदा होंति ॥ १४०॥ संस्कृतछाया. संज्ञाश्च त्रिलेश्या इन्द्रियवशता चार्त्तरौद्रे । ज्ञानं च दुःप्रयुक्तं मोहः पापप्रदा भवन्ति ॥ १४० ॥ पदार्थ-[संज्ञाः] चार संज्ञा [च] और [विलेल्याः ] तीन लेश्या [च] और [इन्द्रियवशता] इन्द्रियोंके आधीन होना [च] तथा [आत्तरौद्रे] आर्त और रौद्रध्यान और [दुःप्रयुक्तं ज्ञानं] सक्रियाके अतिरिक्त असत्क्रियावोंमें ज्ञानका लगाना तथा [मोहः] दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय कर्मके समस्तभाव हैं ते [पापप्रदाः] पापरूप आवस्त्रयके कारण [भवन्ति ] होते हैं। भावार्थ-तीव्रमोहके उदयसे आहार भय मैथुन परिग्रह ये चार संज्ञायें होती हैं और तीव्र कषायके उदयसे रंजित योगोंकी प्रवृत्तिरूप कृष्ण नील कापोत ये तीन लेश्यायें होती हैं । रागद्वेषके उत्कृष्ट उदयसे इन्द्रियाधीनता होती है । रागद्वेपके अति विपाकसे इष्टवियोग अनिष्टसंयोग पीड़ाचिन्तवन और निदानबंध ये चार प्रकारके आर्त ध्यान होते हैं। तीव्र कपायोंके उदयसे जब अतिशय क्रूरचित्त होता है तब हिंसानंदी मृषानंदी स्तेयानंदी विषयसंरक्षणानंदीरूप चार प्रकारके रौद्रध्यान होते हैं । दुष्ट भावोंसे धर्मक्रियांसे अतिरिक्त अन्यत्र उपयोगी होना सो खोटा ज्ञान है । मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रके उदयसे अविवेकका होना सो मोह (अज्ञानभाव) है इत्यादि परिणामोंका होना सो भाव पापास्रव कहाता है । इसी पापपरिणतिका निमित्त पाकर द्रव्यपापासवका विस्तार होता है । यह आस्रवपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा । आगे संवर पदार्थका व्याख्यान किया जाता है। इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुदुमग्गम्भि। जावत्तावत्तेहिं पिहियं पावासवं छिदं ॥ १४१ ॥ . संस्कृतछाया. इन्द्रियकपायसंज्ञा निगृहीता यैः सुप्ठुमार्गे । यावत्तावत्तेषां पिहितं पापास्रवं छिद्रं ॥ १४१ ।। पदार्थ-[यैः] जिन पुरुषोंने [इन्द्रियकपायसंज्ञाः] मनसहित पांच इन्द्रिय, चार १. 'अट्टरुद्दाणि' इत्यपि पाठः ।

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